व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में प्रमाणित होना आवश्यक व अवश्यंभावी रहा । इसी क्रम में सहअस्तित्ववादी नजरिये से सभी मुद्दे जो मानव पहले से ही जानना चाहता है, जो अज्ञात रहा है उन सबकी व्याख्या होना संभव हो गया ।
उक्त प्रकार से अस्तित्व में चारों अवस्थाओं में पाये जाने वाले सम्पूर्ण मात्रायें, एक-एक मात्रा अपने त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने के रूप में स्पष्ट हुआ । मानव के लिए मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में ही सार्थक होने के लिए यह अध्ययन प्रस्तुत हुआ ।
मात्रा विधा में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के अध्ययन के संबंध में रूप चारों अवस्थाओं के लिए स्पष्ट हो चुकी है । अब गुण और स्वभाव के संबंध में स्पष्ट होना आवश्यक है । स्वभाव चारों अवस्थाओं में भिन्न देखा जा रहा है । पदार्थावस्था में संगठन-विघटन या किसी से संगठन किसी से विघटन क्रिया के रूप में स्वभाव को पदार्थावस्था में देखा जाता है । प्राणावस्था में स्वभाव सारकता मारकता के रूप में देखने को मिलता है । सारकता, स्वयं में विपुल होने के अर्थ में, दूसरा जीव संसार के लिए उपयोगी होने के अर्थ में । मारकता का मतलब अपने बीज व्यवस्था को विपुल बनाने में अड़चन पैदा करने की क्रिया और जीव संसार के लिए रोग, मृत्युकारक होने की स्थिति से है । जीव संसार में स्वभाव को क्रूर-अक्रूर के रूप में पहचाना गया है । अक्रूर का अर्थ है दूसरे किसी जीवों का हत्या न करना, मांस भक्षण न करना, वनस्पति आहारों पर जीते रहना । इस प्रकार से क्रूर-अक्रूर दोनों स्पष्ट होते हैं । दूसरे भाषा में मांसाहारी-शाकाहारी के रूप में जाना जाता है । तीसरी भाषा में हिंसक-अहिंसक भी कह सकते हैं । ज्ञानावस्था का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा होना पाया जाता है । ये ही मानव स्वभाव के रूप में स्पष्ट होता है । मानव विरोधी स्वभाव हीनता, दीनता, क्रूरता सहित परधन, परनारी/परपुरुष, परपीड़ा के रूप में गण्य है । जो इन प्रवृत्ति में रहते हैं, वे ही पशु मानव, राक्षस मानव में गण्य होते हैं । ये दोनों मानव विरोधी होना पाया जाता है । मानव विरोधी स्वभाव वाले शनैः-शनैः मानवीय स्वभाव में परिवर्तित होने की संभावना बनी रहती है । इसी आधार पर सार्थक शिक्षा का प्रस्ताव है, दूसरी भाषा में सहअस्तित्व वादी शिक्षा का प्रस्ताव है ।
धीरता का तात्पर्य मानव न्याय के प्रति सुस्पष्ट और प्रमाणित रहने से है । सुस्पष्ट होने के लिए अध्ययन और परंपरा ही एकमात्र आधार है । परंपरा, अध्ययन कार्य का धारक वाहक है, अध्ययन वर्तमान में होता ही रहता है । वीरता का तात्पर्य, स्वयं न्याय के प्रति निष्ठान्वित,