व्यवहारान्वित, प्रमाणित रहते हुए लोगों को न्याय सुलभता के लिए अपने तन, मन, धन को अर्पित समर्पित करने से ही है । यह भी शिक्षा विधि से ही और लोक शिक्षा विधि से ही सार्थक होना पाया जाता है । उदारता का तात्पर्य है अपने में से प्राप्त तन, मन, धन रूपी अर्थ को उपयोगिता विधि से, सदुपयोगिता विधि से, प्रयोजनीयता विधि से उपयोग करना । उपयोगिता विधि का तात्पर्य शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति में प्रयोग करना है । सदुपयोगिता का तात्पर्य अखण्ड समाज में भागीदारी करते हुए वस्तुओं का अर्पण-समर्पण करना है । प्रयोजनीयता का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, वह भी स्वयं स्फूर्त स्वायत्त विधि से ।

दया का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को उपलब्ध कराने की क्रिया से है । कृपा का तात्पर्य उपलब्ध वस्तु के अनुसार पात्रता को उपलब्ध कराना है । यह वस्तु के अनुरूप पात्रता के अभाव की स्थिति में हो जाना पाया जाता है । करूणा का तात्पर्य वस्तु भी न हो पात्रता भी न हो इन दोनों को स्थापित करने की क्रिया है । मानव दया, कृपा, करूणा पूर्वक मानव, देव मानव और दिव्य मानव के रूप में वैभवित होना पाया जाता है । ऐसे वैभव देश, धरती, मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी होना पाया जाता है ।

मात्रा सिद्धान्त, सार रूप में, इस प्रकार समझ में आता है एक-एक के रूप में विद्यमान वस्तु, इकाई मात्रा हैं । इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में वर्तमान है । प्रत्येक परमाणु ही मूल मात्रा है । मूल मात्रा परमाणु होना इसलिए स्पष्ट हुआ है कि इकाई जो परिभाषित होता है, यह स्वयं में व्यवस्था हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता हो । इकाई हो, व्यवस्था में भागीदारी करता न हो, ऐसी स्थिति में ऐसी इकाईयों में भी व्यवस्था में भागीदारी के लिए प्रवृत्ति होना पाया जाता है, जैसा परमाणु अंश और भ्रमित मानव । अंश स्वयं में व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता अर्थात् निश्चित आवश्यकता को व्यक्त नहीं कर पाता, इसलिए हर परमाणु अंश, परमाणु में भागीदारी करने, फलतः व्यवस्था को प्रमाणित करने के अर्थ में प्रवर्तनशील है । निश्चित आचरण ही व्यवस्था के रूप में ख्यात होता है । इससे पता चलता है कि परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं । मानव, मानव को पहचानना, अभी आवश्यकता है । मानव को पहचानने का एक ही सूत्र है - मानवत्व, मानव लक्ष्य के अर्थ में ही होना आवश्यक है । मानव लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय सहअस्तित्व है । मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करने के क्रम में ही, मानवीयता पूर्ण आचरण को स्पष्ट कर पाते हैं । इसका

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