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पदार्थावस्था से प्राणावस्था विकसित, प्राणावस्था से जीवावस्था विकसित, तथा जीवावस्था से भ्रांति ज्ञानावस्था का पशु मानव विकसित है । भ्रांति ज्ञानावस्था के पशु मानव से भ्रांत राक्षस मानव विकसित, भ्रांत राक्षस मानव से भ्रांताभ्रांत मानव विकसित तथा भ्रांताभ्रांत मानव से निर्भ्रान्त देव मानव विकसित है । निर्भ्रान्त देवमानव से दिव्यमानव विकास एवं जागृति पूर्ण है ।

ज्ञानावस्था की इकाई दर्शन क्षमता सम्पन्न है । दर्शन, व्यापक में अवस्थित जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति के संदर्भ में है ।

निर्भ्रम अवस्था में ही अनुभव ज्ञान व दर्शन पूर्ण होता है । इसलिये -

निर्भ्रमता ही जागृति, जागृति ही प्रबुद्धता, प्रबुद्धता ही संप्रभुता, संप्रभुता ही प्रभुसत्ता, प्रभुसत्ता ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था है ।

“मानव ही मानव के ह्रास व विकास में प्रधानत: सहायक है।”

“ज्ञानात्मनोर्विजयते”

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