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अध्याय – 5

शरीर के द्वारा संपन्न होने वाले उत्पादन, वितरण, व्यवहार, व्यवसाय एवं भोग ही ज्ञानात्मा का लक्ष्य नहीं है । ज्ञानात्मा आनंद सहज निरंतरता चाहता है । यह जागृति पूर्वक सफल होना पाया जाता है ।

ज्ञानात्मा बौद्धिक समाधान के बिना संतुष्ट नहीं है ।

ज्ञानात्मा को न्याय पूर्ण व्यवहार के बिना शान्ति नहीं है ।

नियमपूर्वक व्यवसाय के बिना उत्पादन का विपुलीकरण समृद्धि के अर्थ में सार्थक नहीं है ।

उत्पादन मात्र का आस्वादन स्थूल शरीर के पोषण, संरक्षण एवं समाज गति-सीमान्तवर्ती उपादेयी है ।

यांत्रिक-तांत्रिक प्रयोग भी उत्पादनापेक्षा में निहित है ।

प्रत्येक आवश्यकीय आस्वादन से जड़ पक्ष की पुष्टि होती है । चैतन्य पक्ष के मन को सुख या दुख भी भास सकता है ।

सुख के भास-आभास का कारण ही है उसकी निरंतरता के लिए जिज्ञासा । अर्थ का विपुलीकरण सुख की निरंतरता का साधन सिद्ध नहीं हुआ । साथ ही अर्थ उपेक्षणीय भी नहीं है, क्योंकि जड़ शरीर के पोषण, संरक्षण व समाज गति के निमित्त उत्पादन आवश्यक है । अर्थ के सदुपयोग में सभ्यता एवं आचरण प्रकट होता है । जिसकी अक्षुण्णता ही अग्रिम विकास एवं जागृति सहज परंपरा का उदय है ।

न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवहार ही सुख एवं शान्ति सहज निरंतरता है ।

धर्म पूर्ण विचार ही समाधान है, जो संतोष सहज निरंतरता है ।

धर्मविहीन वस्तु या इकाई नहीं है ।

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