मध्यस्थ दर्शन में प्रतिपादित मूल बिन्दु
सत्ता मध्यस्थ है, व्यापक है । सत्ता में प्रकृति सम-विषम और मध्यस्थ क्रिया है, सीमित है । इसलिये सत्ता स्थिति पूर्ण है ।
सत्ता में जड़-चैतन्य प्रकृति स्थितिशील है, इसलिये सत्ता में प्रकृति समायी हुई है । अत:, सत्ता में प्रकृति ओत-प्रोत है । अस्तु, सत्ता में प्रकृति सम्पृक्त है इसलिये ही प्रकृति पूर्णतया ऊर्जा सम्पन्न है । अस्तु, प्रकृति क्रियाशील है । अत: प्रकृति श्रम, गति एवं परिणामशील है । फलस्वरूप प्रकृति ही चार अवस्थाओं में प्रत्यक्ष है । इसलिये सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में से चैतन्य प्रकृति ज्ञानावस्था में अनुभव करने की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता से सम्पन्न होने के अवसर समीचीन है तथा चारों अवस्थाएं एक दूसरे से पूर्णता संपूर्णता के अर्थ में अनुबंधित हैं ।
सत्ता मध्यस्थ है । इसलिये मध्यस्थ सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति नियंत्रित एवं संरक्षित है । प्रत्येक परमाणु में पाये जाने वाला मध्यांश (नाभिक) मध्यस्थ क्रिया है । इसलिये सम-विषमात्मक क्रियाएं एवं सापेक्ष शक्तियाँ नियंत्रित एवं संरक्षित हैं ।
अनन्त क्रिया अथवा क्रिया-समूह ही प्रकृति है, जो जड़ और चैतन्य के रूप में गण्य है । जड़ प्रकृति ही विकास पूर्णता के अनन्तर चैतन्य पद को पाती है यह नियति विधि से सम्पन्न रहता है। मानव जड़ एवं चैतन्य का संयुक्त रूप है साथ ही प्रकृति का अंश भी है ।
विकास क्रम में गठनपूर्णता ही विकास/जागृति क्रम में भ्रमित मानव में जागृति ही क्रिया पूर्णता एवं आचरण पूर्णता है । जागृत मानव कम विकसित प्रकृति के साथ व्यवहार व्यवसायपूर्वक सदुपयोग, प्रयोजनीयता का पोषण करता है । मानव का मानव के साथ व्यवहार, अधिक जागृत के साथ गौरव करना दायित्व है तथा अधिक जागृति के लिये अभ्यास, अध्ययन एवं चिंतन करता है ।
भ्रमित मानव ही कर्म करते समय स्वतंत्र एवं फल भोगते समय परतंत्र है ।
इस पृथ्वी पर मानव जागृति क्रम में है । उसे जागृतिपूर्ण होने का अवसर, वांछा एवं संभावना प्राप्त है । जागृत मानव का कम विकसित के लिए सहायक होना ही उसका प्रधान लक्षण है ।