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अध्याय – 1

अब ब्रह्म जिज्ञासा है । ब्रह्म शब्द के अर्थ को स्पष्ट करना है ।

“मैं” और “मेरा” के संर्दभ में निर्भ्रान्ति अथवा असंदिग्धता में, से, के लिए ब्रह्म जिज्ञासा है ।

चैतन्य इकाई के मध्यांश की संज्ञा “मैं” है जो आत्मा के नाम से अभीहित है ।

“मैं” से मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि का वियोग नहीं है । इनमें आत्मानुगामी बनने योग्य क्षमता की प्रस्थापन प्रक्रिया ही साधना है । इन चारों के अविभाज्य समुच्चय की संज्ञा “मेरा” और जागृति है ।

यही जीवन जागृति है ।

देह और देहकृत परिणामों का योग-वियोग प्रसिद्ध है जो मेरे द्वारा निर्मित था, स्वीकृत रहा है ।

‘यह’ (ब्रह्म) व्यापक है, जबकि प्रत्येक क्रिया सीमित है । यह (ब्रह्म) सत्ता है ।

‘यह’ अपरिणामी और अस्तित्व पूर्ण है, जबकि प्रत्येक क्रिया परिणाम पूर्वक स्थितिशील है ।

‘यह’ शब्दों द्वारा पूर्णतया उद्घाटित नहीं है । केवल शब्दों के द्वारा (ब्रह्म) का निरूपण अपूर्ण है । ‘यह’ (ब्रह्म ) की अप्रचुरता का नहीं अपितु शब्द की अक्षमता का द्योतक है । शब्द की उत्पत्ति तथा स्थिति पाई जाती है, ‘यह’ ब्रह्म केवल साम्य और व्यापक, पूर्ण अस्तित्व ही है, क्योंकि ब्रह्म व्यापक वस्तु ही है, जीवन में भी पारगामी है, शरीर में भी पारगामी है । जीवन को ही व्यवहार में न्याय और समाधान के रूप में प्रमाणित होना है, व्यवहार में प्रमाणित होने के क्रम में ज्ञान विज्ञान विवेक पूर्वक ही जिम्मेदारी, भागीदारी करना होता है । तभी ब्रह्म निरूपण पूरा संप्रेषित, अभिव्यक्त होना पाया जाता है । इस प्रकार परम सत्य रूपी अस्तित्व, व्यापक

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