1.0×

अध्याय – 7

जड़ क्रिया का अंतिम परिणाम चैतन्य, चैतन्य का अंतिम विकास (जागृति) ज्ञानानुभूति ही है ।

परिणाम ही जड़ प्रकृति में उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय के रूप में परिलक्षित है । चैतन्य प्रकृति में विचार, गुणात्मक परिवर्तन एवं परिमार्जन दृष्टव्य है ।

प्रत्येक उत्पत्ति के पूर्व उसकी स्थिति भिन्न थी । इसलिए सम्यक विवेचना के उपरांत अनंत स्थितियों में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के आधार पर वैविध्यता की स्थिति स्पष्ट है ।

विेवेचनाधिकार ज्ञानावस्था में सिद्ध हुआ है ।

विवेचना स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में है ।

विवेचना मात्र रूप, गुण स्वभाव और धर्म सहज ही है ।

उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की गणना केवल भौतिक एवं रासायनिक परिणाम व परिवर्तन की सीमान्तवर्ती है, जो मरणशील है । अर्थात् अग्रिम परिणाम भावी है ।

चैतन्य ज्ञानात्मा में अनुभव सीमान्तवर्ती क्षमता पूर्ण होने की संभावना है साथ ही उसके योग्य परिमार्जनशीलता चेतना विकास मूल्य शिक्षा भी प्रसिद्ध है ।

चैतन्य सदा ही जागृति क्रम में अथवा जागृत है । निद्रा जड़ का स्वभाविक गुण है ।

जागृति की तुलना में ही स्वप्न एवं सुषुप्ति का अध्ययन है । सत्ता में अनुभूति एवं दर्शन योग्य क्षमता ही जागृति है । अनुभूति योग्य क्षमता पर्यन्त रूप, गुण, स्वभाव की अभिव्यंजना भावी है । जिससे हर्ष-शोकादि द्वन्द्व का प्रसव है ।

Page 37 of 64
33 34 35 36 37 38 39 40 41