अध्याय – 8
चेतना, चैतन्य एवं जड़ की चर्चा है ।
चेतना ही ब्रह्म सत्ता है ।
जड़ ही विकासपूर्वक चैतन्य अवस्था में प्रतिष्ठित होता है ।
परमाणु में ही विकास और ह्रास का दर्शन है ।
धरती जैसी रचनाएं अनेक अणु-परमाणु के संघटित पिण्ड के रूप में दृष्टव्य है । जड़ प्रकृति की रसायन क्रिया-प्रक्रिया, प्रभाव और परिणाम ही सीमा है । वह चैतन्य और चैतन्यता नहीं है ।
प्रस्थापन एवं विस्थापन प्रक्रिया ही रासायनिक एवं भौतिक सीमा की गरिमा है ।
परमाणु में पाए जाने वाले अंशों की संख्या वृद्धि ही प्रस्थापन घटना एवं न्यून होना ही विस्थापन घटना है । किसी एक परमाणु में अंशों की वृद्धि के लिए दूसरे परमाणु में अंशों का घटना आवश्यक है ।
जड़ प्रकृति में आशा, विचार, इच्छा और संकल्प का प्रकटन नहीं है ।
सत्ता में प्रकृति संपृक्त स्थिति में है ।
दृश्य ही प्रकृति है और दर्शक भी प्रकृति का ही विकसित अंश है । सम्यक दर्शन सम्पन्न जीवन ही निर्भ्रम इकाई है । दर्शन क्षमता जागृति का द्योतक है । अस्तित्व से अधिक अनुमान नहीं है ।
स्थिति भास रहते हुए विश्लेषण-अनुभव का अभाव ही ज्ञातव्यता में अपूर्णता, प्राप्तव्यता में अभावता है फलतः होतव्यता में सशंकता दृष्टव्य है ।
क्रियात्मक अस्तित्व जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का प्रसिद्ध लक्षण है ।