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रूपी ब्रह्म में ही हर मानव प्रयोग, व्यवहार व अनुभवपूर्वक प्रमाणित होने की व्यवस्था है । मानव की अभिव्यक्ति में भाषा एक आयाम है । मानव अपने सम्पूर्णता के साथ ही पूर्ण वस्तु को अभिव्यक्त करता है । यही पूर्ण जागृति का प्रमाण है ।

“मैं ” निर्भ्रमित अवस्था में आत्मा हूँ क्योंकि अनुभवमूलक विधि से ही जीवन जागृति का प्रमाण होना पाया जाता है । अनुभव मूलक विधि से बुद्धि, चित्त, वृत्ति और मन अभिभूतिं, अनुगमित रहना पाया जाता है । अर्थात् अनुभव के अनुरूप प्रतिरूप में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि अनुप्राणित रहते हैं । अनुप्राणित रहने का तात्पर्य प्रेरित, अभिव्यक्त रहने से है । इस प्रकार निर्भ्रम अवस्था में ‘मैं ’ अर्थात् आत्मा होने का प्रमाण स्पष्ट होता है । इसे हर नर-नारी जागृतिपूर्वक प्रमाणित कर सकता है । भ्रमित अवस्था में जीवन में ‘अहंकार’ हूँ जो अजागृति और भ्रम का द्योतक है । भ्रमित बुद्धि ही अहंकार है । भ्रमित बुद्धि अपने तात्विक स्वरूप अर्थात् यथास्थिति स्वरूप में आत्मबोध रहित होना ही रहा, इस स्थिति का नाम अहंकार है । ऐसी घटना के कारण में शोध और अनुसंधान की अपूर्ति रही । मनाकार को साकार करने के पश्चात् भी दुःखी होने का कारण यथावत् रहा । मनः स्वस्थता को प्रमाणित करने व उसकी निरन्तरता में मानव परम्परा में प्रत्येक नर-नारी अनुभव मूलक विधि से आत्मबोध सहित प्रमाणित होना सहज और आवश्यक है ।

आत्म बोध और ब्रह्म अनुभूति के लिए सहज जिज्ञासा है । यह मानव परम्परा में जागृत शिक्षा संस्कार पूर्वक समाधानित सार्थक होना पाया जाता है ।

‘यह’ ब्रह्मानुभूति सर्वमानव सहज ईष्ट है, क्योंकि अनुभव मूलक विधि से ही हर नर-नारी यर्थाथता, वास्तविकता, सत्यता को प्रमाणित करते हैं ।

‘यह’ सबको सर्वदा सर्वत्र एक सा प्राप्त है । जबकि हर इकाई दूसरी इकाई के लिये प्राप्य है ।

प्राप्त की अनुभूति और प्राप्य का आस्वादन एवं सान्निध्य प्रसिद्ध है ।

आत्मा ब्रह्म से भिन्न होते हुये भी नेष्ट नहीं है क्योंकि प्रकृति सहज सर्वोच्च (विकासपूर्ण) जागृतिपूर्ण अथवा जागृतिशील अंश ही आत्मा है ।

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