अध्याय – 4
आधारहीन कल्पना ही स्वप्न है ।
आगन्तुक गुण ही कल्पना है । आगन्तुक गुण का तात्पर्य मानवेत्तर प्रकृति के अनुसार जीने की कल्पना करना है ।
स्वभाव गुण (अर्जित गुण) और आगन्तुक गुण, ये गुण के दो भेद प्रसिद्ध है ।
शक्ति का नियोजन, उत्पादन, उपयोग, वितरण व सद्उपयोग प्रसिद्ध है ।
क्रियाकलाप में गुणों का आदान-प्रदान, चैतन्य जीवन में स्वभाव मूल्यों का आदान-प्रदान दृष्टव्य है ।
चैतन्य की स्वभाव गति शक्तियों का इन्द्रिय व्यूह द्वारा प्रकटीकरण तथा उसकी गुणगत प्रक्रिया का संकेत ग्रहण पूर्वक समर्थन अथवा असमर्थन भी उसी से सम्पन्न होता है ।
मानव में आगन्तुक अथवा अर्जित स्वभाव (मौलिकता) ही प्रत्यक्ष है ।
चैतन्य इकाई स्वमूल्यांकनानुसार ही पर मूल्यांकन करती है । मूल प्रवृत्तियों के मूल में स्वयं की मौलिकता का अस्तित्व रहता ही है । स्वभाव मूल प्रवृत्तियों के रूप में प्रत्यक्ष है । प्रवृत्तियाँ हर्ष-क्लेश की सीमान्तवर्ती है ।
जागृत मानव में मूल प्रवृत्तियों के मूल में स्वयं में मौलिकता स्वीकृत रहता ही है ।
जागृत चैतन्य इकाई स्वयं में विश्वास पूर्वक मूल्यांकन करती है ।
जागृत स्वभाव समाधानपूर्ण मूल प्रवृत्तियों के रूप में प्रत्यक्ष है । भ्रमित जीवन में क्लेश तथा जागृत जीवन में हर्ष स्पष्ट है ।
संस्कारपूर्वक ही मूल प्रवृत्तियों का उदय होता है । परिमार्जन पूर्वक ही पुनराभिव्यक्ति होती है ।