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अध्याय – 2

ब्रह्म ज्ञान का अप्रचलन, इसकी अप्रचुरता तथा अप्रतिष्ठा नहीं है । ये केवल इसके योग्य अधिकार (क्षमता, योग्यता, पात्रता) के अभाव के लक्षण हैं ।

जो अस्तित्व में है इसकी समझ न होने मात्र से इसमें अथवा इसकी कोई क्षति सिद्ध नहीं होती ।

अस्तित्व में पायी जाने वाली वस्तु के गुण, स्वभाव, धर्म एवं समुचित व्यवहार के अध्ययन तथा ज्ञान पूर्वक किये गये अभ्यास से ब्रह्मानुभूति योग्य क्षमता का विकास होता है ।

ब्रह्म ही सत्य, सहअस्तित्व ही परम सत्य, सहअस्तित्व में अनुभव ही समाधान, समाधान ही समत्व, समत्व ही आनंद है, आनंद ही अनुभव प्रमाण है । अनुभव ही व्यवहार और प्रयोग सहज प्रमाण है । उत्पादन समत्व नियम पूर्वक, व्यवहार समत्व न्यायपूर्वक, विचार समत्व धर्म पूर्वक (समाधान), अनुभव का समत्व ब्रह्म सहज व्यापकता में प्रत्यक्ष है ।

वस्तु, क्रिया, रचना और व्यवहार की स्थिति सर्वकाल में परिणाम एवं परिमार्जन पूर्वक विकास एवं जागृति के लिए व्यस्त है । ब्रह्म, सत्ता सहज अस्तित्व देश-कालाबाध है । मानव परिमार्जनशील है, उसी में अधिकार व अनाधिकार योग्यता और अयोग्यता अपेक्षाकृत प्रक्रिया से अभिप्रेत एवं अभिव्यक्त है ।

सभी परमाणु-ग्रह-नक्षत्रादि ब्रह्मावेष्ठित, ब्रह्म में समाहित एवं संपृक्त हैं ।

प्रत्येक इकाई गठनपूर्वक इकाई है । प्रत्येक गठन में समाहित प्रत्येक अंश के सभी ओर ब्रह्म है । ब्रह्म प्रत्येक इकाई व अंशों में पारगामी है ।

व्यापक सत्ता पूर्ण ही है जिसकी अनेक संज्ञाएं हैं ।

आकाश और शून्य भी ब्रह्म सहज संज्ञा हैं ।

ब्रह्मानुभूति पर्यन्त कोई भी मानव परिमार्जन से मुक्त नहीं है ।

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