देखने वाला अर्थात् समझने वाला ज्ञानावस्था का मानव ही है। ये सब प्रकार की अभिव्यक्तियाँ, इस धरती में होने के मूल में उसकी स्वभाव गति ही रही है, क्योंकि “प्रत्येक एक अपनी स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही अग्रिम विकास व यथा स्थिति को प्राप्त कर लेता है। क्योंकि प्रत्येक एक के लिए स्वभाव गति में सहज ही नैसर्गिकता, वातावरण एवं परंपरा आदि, ये सब अनुकूल रहते आया है।” किसी एक परमाणु या अणु को या एक मानव को स्वभावगति में रहने के लिए अनुकूल परिस्थिति का अथवा किसी जीव या वनस्पति को उन उनकी स्वभाव गति में रहने योग्य वातावरण, नैसर्गिकता और परस्परता मिल जाए, तब उनमें जो परिवर्तन देखने में आवेगा वह सब पहले से अधिक दृढ़ता तथा गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से विपुलता की ओर परिवर्तित होता हुआ देखने को मिलता है।
इसे और भी स्पष्टता से देखें कि मानव जन्म से ही अर्थात् शरीर यात्रा के समय से ही न्याय का याचक, सही कार्य करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है। यह शिशु की स्वभाव गति है। इसके अनुकूल परिस्थिति, वातावरण, नैसर्गिकता और परस्पता को स्थापित करने की स्थिति में मानव संतान में -
1. न्याय प्रदायिक क्षमता,
2. सही कार्य-व्यवहार करने की योग्यता तथा
3. सत्यबोध होने की पात्रता सहज प्रमाणित होती है।
उक्त उदाहरण से यह भी हृदयंगम होता है कि मानव परंपरा में सानुकूलता के आवश्यकीय तथ्य स्पष्ट होते हैं। ऊपर स्पष्ट किया गया है कि इसके लिए पहले से, मानव परंपरा में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन रुपी अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान सहज ऐसा अधिकार स्थापित हुआ रहता है तभी ऐसी सानुकूल परिस्थिति को स्थापित करना संभव हो पाता है।
अभी तक मानव परंपरा में ऐसी स्थिति नहीं बन पाई है। जबकि मानवेतर प्रकृति अर्थात् पदार्थ, प्राण एवं जीव प्रकृति सानुकूलता के साथ “त्व” सहित व्यवस्था के रूप में है। इनमें सानुकूलता का अध्ययन और मानव में सानुकूलता का अध्ययन विधि का भिन्न होना पाया जाता है। इनमें पदार्थावस्था की वस्तुओं को देखने पर पता चलता है कि मानव निर्मित अधिक आवेशित वातावरण से भी स्वयं स्वभावगति में रहने की स्थिति में, स्व विकास क्रम स्थिति को प्रमाणित कर लेता है। जैसे एक परमाणु अपनी स्वभाव गति में रहते हुए एवं दूसरा परमाणु अपने आवेशित गतिवश उनमें निहित कुछ अंशों को बहिर्गत करने के लिए विवश होने की स्थिति में पहला वाला (परमाणु) अपने में उन बहिर्गत अंशों को आत्मसात करता हुआ मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि पदार्थावस्था में आवेशित गति भी पूरक हो पाता है, जबकि मानव आवेशित गतिवश,