स्वयं भ्रमवश क्षतिग्रस्त होता ही है, अन्य को भी क्षतिग्रस्त कर देता हैं। पदार्थावस्था में अपने समृद्घ होने के लिए, जितने भी प्रकार के परमाणु अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में समृद्घ होने तक स्वभाव गति और आवेशित गति का परस्पर पूरक होना स्पष्ट होता है।
प्राणावस्था में वनस्पतियाँ अपनी स्वभावगति में रहने के लिए सानुकूल वातावरण चाहती है, जो पदार्थावस्था से भिन्न है। वनस्पतियाँ मूलत: बीजानुषंगीय व्यवस्था की अभिव्यक्ति है। वनस्पतियों के लिए सानुकूल वातावरण प्रधान रूप में ऋतु संतुलन है। ऋतु संतुलन का तात्पर्य आनुपातिक वर्षा का होना, आनुपातिक रूप में शीत होना, आनुपातिक रूप में उष्ण होना है। वनस्पतियों में होने वाली दिनचर्या को देखने पर पता चलता है कि ऊपर कहे तीनों प्रकार की उपलब्धियाँ किसी सीमा तक सह पाती है अर्थात् अनुकूल होना प्रमाणित हो पाता है। किसी अनुपात के अनन्तर अर्थात् किसी अवधि के कम या अधिक होने से प्रतिकूलता प्रमाणित होती है अर्थात् वनस्पतियाँ मर जाती हैं। वास्तविक रूप में उनके रचनाक्रम और वैभव क्रम में प्रतिकूलता उसकी विरचना के रूप में होना देखा जाता है। इसी घटना को मरना भी कहा जाता है।
इसका तात्पर्य यही हुआ कि संपूर्ण वनस्पतियाँ जीव शरीर और मानव शरीर भी प्राण कोशाओं से रचित है। इस कारण यह न्यूनतम अधिकतम ऊष्मा में संतुलित रहता है । इसी प्रकार न्यूनतम अधिकतम पानी को पाकर और न्यूनतम अधिकतम ठंडी को पाकर ही अपने संतुलन को स्वभाव गति के रूप में रख पाता है। इसी के साथ अर्थात् ऋतुमान के साथ ही सानुकूल रूप में धरती, हवा और उर्वरक संयोग भी महत्वपूर्ण कारक तत्व है।
ऊपर कहे गए सभी तत्व यथा-शीत, उष्ण, वर्षा, हवा, धरती और उर्वरकता का संतुलन यह धरती अपनी स्वभावगति प्रतिष्ठा के आधार पर स्पष्ट कर चुकी तभी जीव और मानव संसार इस धरती पर पनपे। इस प्रकार इस धरती की स्वभावगति प्रतिष्ठा में स्थित प्रत्येक मानव को समझ में आता है। अस्तु, प्राणावस्था की संपूर्ण रचनाओं के लिए अपनी परंपरा सहज स्वभाव गति को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु उक्त पाँचों कारक तत्वों का संतुलित रहना एक आवश्यकता है। इस प्रकार प्राणावस्था और प्राणावस्था की संपूर्ण रचनाएँ पदार्थावस्था से विकसित दिखते हुए, वातावरण और नैसर्गिकता सहज कारक तत्वों का सहअस्तित्व सहज पूरकता अनिवार्य रहना दृष्टव्य है।
इस विश्लेषण में भी अंतर्विरोध बाह्य विरोध के स्थान पर अंतर्सबधों में संतुलन बाह्य संबंधों में भी संतुलन इनके संयोग में सामन्जस्यता प्रमाणित होती हैं। यह समाधान का साक्षी है। ऊपर किए गए विश्लेषण से यह भी स्पष्ट हुआ कि सहअस्तित्व में ही स्वभावगति और आवेशित गति परस्पर सानुकूलता, प्रतिकूलता