आज नहीं जानता । नेता लोग भी ठीक से नहीं जानते। इसका ज्ञान किसे है नेता को या जनता को, ऐसा देखने पर दोनों अज्ञानी मिलते है। क्योंकि संविधान पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। ऐसे विधायिका की नैय्या सम्हालने वाले विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के जनप्रतिनिधि हैं।
“जन प्रतिनिधित्व विधि से संप्रभुता वोट (मत) देते समय मानव गलती नहीं करता”- इसीलिए जनादेश संप्रभुता का द्योतक है। इसी मान्यता के आधार पर गणतांत्रिक व्यवस्था प्रांरभ हुई। जहाँ-जहाँ अभी भी राजा लोग है वहाँ-वहाँ विधायिका का स्वामी राजा को आज भी प्रधान माना जाता है। राजतंत्र के समय की मान्यता के अनुसार राजा स्वयं ईश्वर का प्रतिनिधि हैं। “राजा कभी गलती नहीं करता-इसीलिए संप्रभुता राजा का स्वरुप है” - ऐसी मान्यताएँ वंशानुगत उत्तराधिकार होने को मान लेती है। इस प्रकार जन प्रतिनिधि रूप में राजगद्दी का दावेदार अथवा राज परंपरा से आया हुआ राजा, राजगद्दी में बैठा होता है। इनके लिए आम जनता का सम्मान -गौरव अर्पित होते ही रहता है । हर समुदाय किसी न किसी राजगद्दी में अर्पित होता ही है, चाहे वह राजतांत्रिक राजगद्दी हो या गणतांत्रिक। अस्तु, इनमें यह चीज देखने को मिली कि संग्रह कार्य इनके लिए अत्यंत आसान हो जाता है। इस विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकला कि-
- आदिकाल से अभी तक वस्तु संग्रह करने वाले व्यक्तियों का अनुपात बढ़ते गया।
- शक्ति केन्द्रित शासन के अनुसार बंदूक, तोप, प्रक्षेपास्त्र, विस्फोट आदि वध-विध्वंस कार्यों का अधिकार संविधान विधि के अनुकूल प्रणालियों से राजा या नेता को प्रदत्त रहता है। इसे प्रत्येक शासन तंत्र में देखा जा सकता है। ऐसे शासन सम्मत अधिकार संपन्न व्यक्तियों के अतिरिक्त समर शक्तियों का उपयोग करना दूसरों के लिए अवैध माना गया हैं। इसीलिए ऐसे व्यक्ति ऐसे विध्वंसक कार्यों को करते हुए शासन तंत्र के कब्जे में न आ सकने की स्थिति में उग्रवादी, आतंकवादी आदि नामों से जाने जाते है। यह संघर्षवाद का एक स्पष्ट मूल्यांकन है।
शासन विधि, प्रणाली, प्रक्रियाओं से अधिकतर जनता उत्पीड़ित होते रही है, अभी भी उत्पीड़ित हो रही है। इससे छुटकारा पाने के लिए गणतंत्र प्रणाली को सोचा गया। इसके बावजूद उत्पीड़न अधिक प्रसन्नता कम है। इस प्रसन्नता और अप्रसन्नता का आधार वस्तु संग्रह होने या न होने की घटना पर आधारित है।
इसी तरह एक और समुदाय है जो हमें राजयुग से ही ईश्वर के प्रति आस्था, निष्ठा स्थापित करके क्लेश-मुक्ति के लिए उपदेश देते रहे। परोपकार, असंग्रह का उपदेश देते रहे हैं। ऐसे लोगों को हम गुरु, तपस्वी, संत, यति आदि मान कर सम्मान करते रहे है । आम जनता आस्थापूर्वक इनके लिए वस्तु अर्पित करती रही है। ऐसे लोगों को एक वर्ग के रूप में पहचाना जा सकता है। ऐसे महापुरुषों का अध्ययन करने पर पता लगता है कि इनमें से कुछ लोगों को वस्तु संग्रह करना आसान हो गया है अथवा ये लोग वस्तुओं का