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जब ईश्वर को पहचाने जाने की बात आई, तब ईश्वर को मानव द्वारा पहचानना संभव नहीं हुआ क्योंकि मानव एक बहुत छोटी चीज और ईश्वर एक बहुत बड़ी चीज है। तब एक युक्ति निकल आई - वह यह कि ईश्वरीय महिमा अनुग्रह और निग्रह के रूप में है इसको हर व्यक्ति पहचान सकता है। इस प्रकार के आश्वासन को तत्कालीन विद्वानों ने तैयार किया। साथ ही लोक मानव में यह विश्वास भी स्थापित किया कि राजा ईश्वर का अवतार होता है और वह कभी गलती नहीं करता।

इसी के साथ यह उपदेश भी दिया कि राजा, गुरु, ऋषि क्या करते है, यह मत देखो ये क्या कहते है उनको सुनो, यह उपदेश का एक तरीका स्थापित किया । इसी के आधार पर पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की परिकल्पना और कथाओं को बताया गया। पाप और नरक के प्रति भय और पुण्य व स्वर्ग के प्रति प्रलोभन स्थापित करने के लिए परिकथाएँ निर्मित हुई।

इसी आधार पर दान व परोपकार आदि के रूप में पुण्य करने के लिए उपदेश दिया गया। इसमें प्रधानत: ईश्वर को रिझाने के लिए सब पुण्य कर्म बताए गये जैसे - नमन करना, पूजा करना, प्रार्थना करना। हवा, पानी, धरती, सूरज, चाँद-तारे ये सब ईश्वर की महिमा है। इसलिए ये सब पूजा के योग्य हैं। इस प्रकार पूजा के लिए बहुत सारे आधार बनते गये। इसके आधार पर आम जनता को पुण्यार्जन का मार्ग दिखाया। पाप से मुक्ति, ईश्वर कृपा से ही होने का आश्वासन दिया। राजा को ईश्वर का अवतार होना बताया गया। राजा का सम्मान और गौरव ईश्वर की पूजा है, ऐसा बताया गया। ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए राजाज्ञा का पालन करना भी पुण्य कर्मों में गण्य बताया गया। गुरु की आज्ञा, उपदेश का पालन, शिक्षा ग्रहण ये सब पुण्य के साक्षात स्वरुप ही कहे गये। अर्थात् इन्हें पुण्य का प्रमाण माना गया।

इस प्रकार से पुण्य के लिए बताये गये अथवा पुण्य मिलने के लिए जो तरीके बताये गए उसका पालन करने वाले को पुण्यात्मा मान लिया गया। इसके विपरीत जो कुछ भी किया उनको पापात्मा मान लिया गया। इसी के आधार पर धार्मिक दंडनीति तैयार हुई। पाप का दण्ड, दमन, प्रायश्चित बताए गए। धर्मार्जन कार्यों में लगे रहना ही सदाचरण माना गया। इसी क्रम में समुदाय गत कार्यकलापों के आधार पर जो-जो धर्म-कर्म करते रहे है उनके लिए पाप-पुण्य के आधार पर सुधर्मो को बताया गया।

इस प्रकार प्रत्येक संविधान में अर्थात् राज्यकाल में अर्थात् कबीला युग, ग्राम युग में अंतरित होने के समय में विभिन्न समुदायों के बीच में संविधान बने और स्थापित हुए। कुछ लिखित और कुछ अलिखित, दोनों प्रकार के संविधान चलते आये। ईश्वर राजा और गुरु के प्रति आस्था और निष्ठा स्थापित करना ही प्रधान कार्य रहा।

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