“संग्रहवादी प्रवृत्ति” है । आज तकनीकी और प्रौद्योगिकी की प्रधान भूमिका के कारण अत्याधिक उत्पादन हुआ है। अब यह भी सुनने में आ रहा है कि धर्म का लेन-देन या संबंध राज्य के साथ नहीं है। जबकि धार्मिक राजनीति के आरंभिक काल से ही, धर्म और राज्य एक-दूसरे के पूरक रहने की अपेक्षा बनी रही है अथवा ऐसा मान लिया गया था। दोनों में एकात्म संबंध माना गया था। विज्ञान युग के अनंतर आर्थिक राजनीति प्रभावशील हुई। आर्थिक राजनीति की पराकाष्ठा में ऐसी आवाज गूंजने लगी कि धर्म और राज्य के बीच संबंध नहीं है।
इस सदी में सन् 1917 में साम्यवादी विचार के अनुसार धर्म विहीन राज्य व्यवस्था स्थापित हुई। पर सन् 1990 से साम्यवाद का उन्मूलन आरंभ हो गया। वहाँ पहले जैसे ही विविध धार्मिक आस्थाएँ पनपती हुई देखने को मिल रही हैं। इससे यह भी ज्ञानोदय होता है कि जब मानव अपने में सांत्वना एवं शांति चाहता है, प्रकारान्तर से धर्म का ही नाम याद आता है और आस्था का सूत्र ही उसका एकमात्र संबल होता है। आस्था की प्रेरणा आदर्शवाद से ही जनमानस में आई है। भय की तुलना में आस्था से आज भी राहत सी मिलती है। इसी आधार पर आस्था के केन्द्र राजा, गुरु और ईश्वर रहे। गुरु और राजा का सम्मान होते आया। आज की स्थिति में राजकाज का ढंग देखकर जनमानस की आस्था इससे टूटती गई है। आस्था का आधार है रहस्यमय धर्म तथा रुचि के लिए उन्माद त्रय (लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद)।
वर्तमान समय में व्यापारी और अधिकारी समय अनुसार बदलते रहते हैं। कभी व्यापारियों के चंगुल में अधिकारी तो कभी अधिकारियों के चंगुल में व्यापारी-इस तालमेल को बैठाने के कार्यक्रम में लगे दिखाई देते हैं। संपूर्ण अधिकारी समुदाय इस समय प्रधानत: तीन भागों में बंटे दिखाई पड़ते है-
1. कार्यपालिका में प्रशासन कार्य तंत्र और सीमा सुरक्षा में,
2. न्यायपालिका में,
3. विधायिका में - सभी नेता विधायिका के कार्य में लगे है।
इन्हीं के साथ बहुत सारे विभाग समाहित हैं। हर विभाग में अधिकारी होता है । शिक्षा तंत्र भी एक विभाग है। यह कार्यपालिका के अंतर्गत कार्य करता है। आज सर्वाधिक अधिकारी वर्ग संग्रह कार्य में व्यस्त है। विधायिका राजनेताओं के हाथों में है और नेता जनादेश के आधार पर चुना जाता है जबकि राजा वंशानुगत होता था।
विधायिका एक बहुत बड़ा काम हैं। इसी की भागीदारी के लिए अथवा इसका कर्णधार होने के लिए नेताओं को आज आम आदमी ही पहचानकर चुनता है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि विधायिका को आम आदमी