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एकत्रित कर पाया वह बड़े आदमी के नाम से पहचान में आया। इस प्रकार आदिमानव काल से बड़े आदमियों (सम्मान योग्य आदमी) की दो प्रजाति इस रूप में देखने को मिली।

आदर्शवाद के अनुसार पाप, अज्ञान, स्वार्थ दूर होने का आश्वासन जिनसे भी मिला उन्हें तीसरे प्रकार से बड़ा आदमी माना गया। इनको प्राय: गुरु के नाम से इंगित व संबोधित करते रहे। इसके पहले के दो प्रजाति के आदमी में से एक राजा के पद में आ गया जो बाहुबल और युद्घ का अधिकारी बना। दूसरा संग्रह करने वाला व्यापार कार्य में भाग लेने वाला बन गया। इस प्रकार से तीन स्वरुप में बड़े आदमी को पहचानते आए।

इस बीसवीं शताब्दी के अंत तक भी उक्त तीनों प्रकार के आदमियों को बड़े मानते हैं। इन्हीं के आदर्श पर और भी बहुत सारे रूप में प्रदत्त बहुत सारी वस्तुएँ राजा के पास एकत्रित होती रहीं। राजा एवं गुरुजनों का सम्मान होते ही रहा। इसी के साथ राजाओं द्वारा अपहृत वस्तुएँ भी एकत्रित होती रही। बाहुबल के साथ राजाओं में योद्घाओं, युद्घ तंत्रों और समर साधनों के संयोग से बलपूर्वक अन्य देशों को अपने अधीन करने व वस्तुओं को लूटने की दुखद स्थिति आ गई। फलस्वरुप राजाओं के साथ संग्रह जुड़ता ही रहा और सम्मान यथावत् बना रहा। इसी के साथ व्यापारवाद लाभोन्मादी पराकाष्ठा में पहुँचने लगा। सर्वाधिक लोग इस दशक में व्यापार और नौकरी को वर्चस्वी कार्य मानने लगे हैं।

इन दोनों से अधिक यदि किसी व्यक्ति के वर्चस्व को स्वीकारा जा रहा है तो वह है राजगद्दी में बैठा हुआ व्यक्ति अथवा बैठने योग्य व्यक्ति जो राजा का ही परिवर्तित रूप है। इस प्रकार वस्तु संग्रह के लिए तीन तबके सर्वाधिक आगे आए, वे है - राजगद्दी में बैठे हुए नेता या बैठने योग्य नेता, नौकरी करने वाले समुदाय और व्यापार करने वाले समुदाय। व्यापार कार्य को आज दो प्रकार से देखा जा रहा है -

1. उत्पादन विहीन व्यापार जो उपभोक्ता और उत्पादक के बीच होने वाला महत्वपूर्ण या गौरवशाली कार्य माना जाता है।

2. इससे अधिक गौरवशाली कार्य यदि आज मानते है तो वह है उत्पादन सहित व्यापार।

इस प्रकार बीसवीं शताब्दी में संग्रह करने वालों की संख्या बढ़ी। इनमें से जो राजगद्दी और व्यापार के द्वारा संग्रह करने में अभयस्त थे, वे भी इस प्रवाह के साथ है ही। इस क्रम में हर समुदाय राजगद्दी और धर्मगद्दी की निश्चित पहचान अपने-अपने रूप में रहती आयी। इन दोनों के बीच जो एकरुपता का सूत्र राजयुग अथवा दासयुग के प्रारंभ में स्थापित हुआ वह शनै:-शनै: परिवर्तित हो गया। आज राज्य और धर्म दोनों अलग-अलग पहचानने में आ गए हैं। इस परिवर्तन के लिए मानव मानस को जो सूत्र मिला है वह सब

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