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अमरत्व के अर्थ में, श्रम विश्राम के अर्थ में, गति गन्तव्य के अर्थ में अपने आप विकास का लक्ष्य होता हैं। यही लक्ष्य विकास के क्रम और विकास के रूप में स्पष्ट होता है।

जैसे प्रत्येक परमाणु अपने ऋण धनात्मक स्थिति में आवेशित होना और मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा द्वारा उन आवेशों को सामान्य बनाना निरन्तर इस लीला को देखा गया हैं। भौतिक-रासायनिक परमाणु अपने ऋण-धनात्मक स्थिति में आवेशित होने का आशय परिवेशीय अंशों के मध्यांश से दूरी बढ़ने या घटने की स्थिति को कहा है, ऐसी दोनों ही स्थिति में मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा परिवेशीय अंशों को एक निश्चित दूरी पर रखती है। जिसको आवेशों का सामान्य बनाना कहा है। यह इस बात का द्योतक है कि आवेश से मुक्त स्थिति ही स्वयं स्वभाव गति के रूप में गण्य होती है। ऐसी स्वभाव गति की स्थिति में ही प्रत्येक परमाणु में विकास की संभावना निहित होती है।

इस उदाहरण से यह समझ सकते है कि जब किसी भी वस्तु को तात्विक परिवर्तन (परमाणु में निहित परमाणु अंशों की संख्या में परिवर्तन) के लिए बाध्य किया जाता है तब उस स्थिति में हमें यह देखने को मिलता है कि जिस परमाणु में प्रस्थापन होता है वह अपनी स्वभाव गति में रहता है और जिस परमाणु से विस्थापन होता है वह आवेशित गति में रहता है। परमाणु आवेशित गति में रहने का कारण उसमें समाहित अंशों की संख्या की अजीर्णता है। अजीर्ण परमाणु ही अंशों को बहिर्गमित करके स्वभाव गति में हो जाता है। विकास का तात्पर्य अपरिणामिता के ओर से है। अपरिणामिता की स्थिति तक द्रुत परिणाम, शीघ्र परिणाम, दीर्घ परिणाम के पदों में परमाणुओं को देखा जाता है। तात्विक स्थिति व ज्ञान यही है । इस प्रकार परमाणु में एक से अधिक परमाणु अंशों अर्थात् कम से कम दो अंशों से गठित परमाणुओं का योग प्रारंभ होकर कई अंशों से गठित परमाणुओं का होना सिद्घ हो चुका हैं। प्रकृति में व्यवस्था सहज मूल इकाई परमाणु होने के कारण परमाणु में मात्रा, बल और शक्ति का अविभाज्य वर्तमान होना पाया जाता है।

परमाणु की पूर्वावस्था (परमाणु अंश) में व्यवस्था प्रमाणित नहीं है। व्यवस्था प्रमाणित होने के लिए कम से कम दो परमाणु अंश का होना आवश्यक है क्योंकि सहअस्तित्व में ही व्यवस्था है। जैसे ही एक से अधिक परमाणु एकत्रित होते है वे अणु का पद पाते हैं। वे स्वजातीय व विजातीय भेद से गण्य है। विजातीय परमाणुओं के योग से जो अणु अस्तित्व में होते है वे रासायनिक रूप में जाने जाते हैं। ऐसे रासायनिक अणुओं की विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। ऐसी विभिन्न प्रजातियों के रासायनिक अणु मिलकर विभिन्न रचना तथा रस, उपरस आदि के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक पौधा अंकुर के रूप में आरंभ होता है, बढ़ता है और एक दिन विरचित हो जाता है। उसे ठीक से देखने पर यह विदित होता है कि अंकुरण

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