की अपेक्षा में प्राणावस्था की वैविध्यता घट गयी। धरती पर प्राणावस्था और जीवावस्था का प्रगटन ही ज्ञानावस्था के प्रगटन का आधार बना है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन की अपेक्षा प्राणावस्था में रचना की गति तेज है। पदार्थावस्था ही उदात्तीकरण होकर प्राणावस्था के रूप प्रगट होती है। अर्थात् प्रकृति में मनुष्येत्तर प्रकृति के प्रगटन का प्रयोजन ज्ञानावस्था का प्रकटन ही है। जो जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। इसको समझने से मानव को धरती पर अपराध करना बनता नहीं है।
जीवावस्था को देखें तो प्राणावस्था में उसमें कम वैविध्यता दिखाई पड़ती है साथ ही यह देखने को मिलता है कि नैसर्गिकता और वातावरण के दबाव में आकर जो वंशानुषंगीयता की स्थिरता रही है, उसको वह बदल देता हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय पशु आदि मानव के नैसर्गिक दबाव में आकर अपने वंशानुषंगी कार्यकलाप से भिन्न कार्यकलाप करने लगते है इससे पता चलता है कि प्राणावस्था से जीवावस्था में वंशानुषंगीयता की अस्थिरता अथवा अनिश्चयता बढ़ गई तथा वैविध्यता घट गई।
मानव को देखें तो पता चलता है कि मानव में वैविध्यता नहीं के बराबर रह गई। किन्तु इनमें वंशानुषंगीय अस्थिरता चरमावस्था में पहुँच गई। जैसे चोर का बेटा चोर हो ऐसा आवश्यक नहीं। विद्वान की संतान ने विद्वता का अनुकरण नहीं किया, जबकि मूर्ख की संतान विद्वान भी होती है। आश्चर्य की बात है कि मानव फिर भी स्वयं को वंशानुषंगीयता का दावेदार, प्रणेता मान रहा है। यह कितनी दयनीय स्थिति है? जिन वंशानुषंगीयता के आधार पर प्रतिवर्ष ही अनेक निबंध, प्रबंध तैयार हो रहा है ये कहाँ तक मानवोपयोगी है?
“विकास के क्रम में ही पदों की गणना है।”
पदार्थावस्था एक पद है, जिसमें परमाणुओं का तथा विभिन्न प्रजातियों के परमाणुओं के कार्य विन्यास को देखा जाता है जो भौतिक और रासायनिक रूप में परिगणित होते हैं। यही संपूर्ण पदार्थों की वैविध्यता के मूल में तथ्य हैं। संपूर्ण पदार्थों में सजातीय विजातीय परमाणुओं का योग (मिलन) होता है। ऐसे योग के मूल में प्रत्येक परमाणु में अपने आप में एक दूसरे से मिलने का अथवा जुड़ने का बल समाहित रहता है । ऐसे परमाणु में होने वाले गठन के मूल में भी यही तथ्य सिद्घ होता हैं। अरूपात्मक अस्तित्व (सत्ता, व्यापक) में रूपात्मक अस्तित्व संपृक्त रहने के फलस्वरुप ही बल संपन्नता अभिव्यक्त है। अस्तित्व स्वयं रूप-अरूप की अविभाज्य स्थिति होने के कारण इस बात का प्रमाण है कि संपूर्ण रूपात्मक अस्तित्व, अरूपात्मक अस्तित्व में घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। यह घिरा हुआ स्वयं प्रत्येक इकाई के नियंत्रण को स्पष्ट कर रहा है, क्योंकि प्रत्येक इकाई अर्थात् अणु-परमाणु और परमाणु में निहित अंश भी परस्पर निश्चित