1. 5.29 परस्पर पहचान संबंध व मूल्य निर्वाह ही जागृति सहज प्रमाण है।
  2. 5.30 जड़ प्रकृति में कार्य सीमायें जो जितना लम्बा, चौड़ा, ऊँचा होता है जैसा एक परमाणु एक धरती अपने वातावरण सहित उतना ही विस्तार में कार्यरत रहना, प्रभाव सीमा सम्पन्न रहना, हर इकाईयों में परस्परता में निश्चित अच्छी दूरियाँ रहता है।
  3. 5.31 परस्परता में अच्छी दूरियाँ एक दूसरे के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त स्थिति-गतियाँ हैं।
  4. 5.32 अच्छी दूरी, स्थिति गतियाँ स्वयं स्फूर्त रहती है। परमाणु, अणु, प्राण कोषाओं से रचित रचना, ग्रह-गोल, सौर व्यूह, आकाशगंगा, पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था नियंत्रण संतुलन के रूप में होना मानव को विदित होता है। साथ ही यह भी समझ में आता है कि भ्रमित मानव अनियंत्रित है। न्याय, समाधान (मानव धर्म), सत्य सहज जागृत परंपरा में नियंत्रण सहज है।
  5. 5.33 न्याय, संबंधों में प्रयोजन सहज पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उभय तृप्ति संतुलन ही मानव परंपरा में नित्य उत्सव है।
  6. 5.34 तृप्ति व संतुलन ही सर्व मानव में, से, के लिए स्वभाव गति एवं प्रमाण है।
  7. 5.35 सहअस्तित्व में अखण्ड समाज गति रूपी सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित एवं वर्तमान होना ही जागृत मानव सहज वैभव है।
  8. 5.36 सहअस्तित्व नित्य प्रमाणित वर्तमान और प्रभावी है।
  9. 5.37 सहअस्तित्व में ही समाधान, समृद्धि, अभय अर्थात् वर्तमान में विश्वास सम्पन्नता जागृत मानव परंपरा में प्रमाण है।
  10. 5.38 सहअस्तित्व विधि में, से, के लिए व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तु प्रेरित रहना स्पष्ट हो चुका है।
  11. 5.39 व्यापक वस्तु पारगामी पारदर्शी होना परम प्रतिष्ठा है। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण जड़ चैतन्य रूपी एक-एक वस्तु संपृक्त प्रेरित होना रहना नित्य सहअस्तित्व सहज वैभव है।
  12. 5.40 प्रत्येक एक वस्तु व्यापक वस्तु में संपृक्तता वश नित्य निरपेक्ष उर्जा में सदा प्रेरित रहना स्वत्व है। व्यापक वस्तु पारगामी होने का प्रमाण संपूर्ण प्रकृति स्वयंस्फूर्त विधि से ऊर्जा संपन्नता क्रियाशीलता है, इसलिए सत्ता (व्यापक वस्तु) में संपूर्ण एक-एक वस्तु (जड़-चैतन्य) सम्पृक्त है जिसका दृष्टा जागृत मानव ही है।
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