- 7.48 संवदेनायें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धेन्द्रिय क्रिया के रूप में स्पष्ट है। संज्ञानीयतापूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहती हैं। संज्ञानीयता के अभाव में संवेदनाएं अनियंत्रित रहती है। संज्ञानीयता मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना सहज वैभव है।
- 7.49 संज्ञानीयतापूर्वक अथवा जागृतिपूर्वक मानवीयता सहज कार्य-व्यवहार, व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होती है।
- 7.50 समझदारी में, से, के लिए अध्ययन कार्यकलाप का सफल होना ही अभ्युदय है।
- 7.51 समझदारी के अनन्तर प्रमाणित होना ही श्रेय है। श्रेय सर्वशुभ अभ्युदय सहज परंपरा है।
- 7.52 प्रेय का तात्पर्य चार विषयों के वश में किया गया विचार-कार्य-व्यवहार से है।
- 7.53 जागृत मानव पद में हर नर-नारी संवेदनाओं का नियंत्रण एवं समाधान सम्पन्नता सहित ऐषणा नियम त्रय प्रवृत्ति सहित व्यवस्था में प्रमाणित होते रहता है।
- 7.54 मानव ही अस्तित्व में ज्ञानावस्था के पद में प्रतिष्ठा है। इसलिए समझदार होना आवश्यक है।
- 7.55 ज्ञानावस्था मौलिक रूप में सार्थक, स्थिर, निश्चित वैभव है।
- 7.56 जागृत मानव ही ज्ञाता पद में है इसलिए ज्ञेय और ज्ञान का धारक-वाहक होना पाया जाता है।
- 7.57 समाधान ही सुख है। समझदारी पूर्वक समृद्ध सम्पन्न मानसिकता सहित किया गया श्रम नियोजन से समृद्धि सुलभ होता है।
- 7.58 समझदारी सहअस्तित्व सहज विधि से सर्व सुलभ रहता है।
- 7.59 तर्कसंगत पद्धति का तात्पर्य प्रयोजनपूर्वक किया गया प्रक्रिया कार्य-व्यवहार में प्रमाणित होने योग्य प्रणाली सहित प्रेरणाकारी प्रयोजनशील क्रिया है।
12.8 जीवन, दृष्टापद
जीवन : गठनपूर्ण परमाणु, परिणाम का अमरत्व सहित नित्य विद्यमान होना, रहना यही चैतन्य इकाई जीवन है।
दृष्टा पद : मानव में शून्याकर्षण ही नियन्त्रित संवदेना सम्पन्न प्रभाव समेत सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण बोध संकल्प सहित, बोध संकल्प चिंतन चित्रण सहित, चिंतन चित्रण क्रम सहित तुलन विश्लेषण पूर्वक आस्वादन चयन क्रियाकलाप सहित दृष्टा पद में होना रहना है। यही समझदारी सम्पन्नता है। इसके लिए स्त्रोत चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार है।