1. 11.4 वर्चस्व ही स्वतंत्रता स्वराज्य के रूप में परम ब्रह्म वर्चस्व है।
  2. 11.5 मानव में ही वर्चस्वी होने की कामना सदा से रहा है जिसका प्रमाण जीवन जागृति पूर्ण मानसिकता सहज सफल सार्थक होता है।
  3. 11.6 सार्वभौमिकता सहज मानसिकता ही मानव में, से, के लिए वर्चस्व है।
  4. 11.7 व्यक्ति, जागृति पूर्वक ब्रह्मवर्चस्व सहज सर्वशुभ सूत्र व्याख्या है और सार्वभौमिकता ही मानव वर्चस्व सहज प्रमाण है।
  5. 11.8 वर्चस्व सर्व सुलभ होने की पहचान करने की प्रवृत्ति और परम सत्य में अनुभव प्रमाण ही ब्रह्म वर्चस्व है। यही व्यापक वस्तु में चारों अवस्था व पदों का अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन है।
  6. 11.9 जागृत होना ही ब्रह्म वर्चस्व प्रवृत्ति का आधार है।
  7. 11.10 परस्परता में अनुभव प्रमाण सहज पहचान होना ही प्रकाशमानता है परस्परता में पहचान निर्वाह ब्रह्म वर्चस्व है।
  8. 11.11 सुख एवं समाधान पूर्वक जीने के लिये मन:स्वस्थता प्रधान आवश्यकता है। इसका प्रमाण स्वयं में ब्रह्म वर्चस्व है।

12.12 अनुभव प्रमाण

  1. 12.1 हर मानव में, से, के लिए परावर्तन-प्रत्यावर्तन के रूप में ज्ञान, विवेक, विज्ञान सहज आवर्तनशीलता की क्रिया स्पष्ट है। इसी आवर्तन प्रक्रिया क्रम में सहअस्तित्ववादी नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सर्वतोमुखी समाधान, सहअस्तित्व रूपी परम सत्य, अध्ययन विधि से बोधगम्य प्रमाणित होने के संकल्प विधि से अनुभव प्रमाण होना पाया जाता है। यही अनुभव प्रमाण है। यही जागृत मानव परंपरा है।
  2. 12.2 क्रम से सर्वशुभ है। अनुभव सार्वभौम अक्षुण्ण परम है जिसके आधार पर ही मानव चेतना सहज व्यवहार, प्रमाण, सामाजिक अखण्डता के अर्थ में व उत्पादन कार्य, प्रयोग, प्रमाण, समाधान पूर्वक समृद्धि के अर्थ में प्रमाणित होना नित्य समीचीन है।
  3. 12.3 सर्व शुभ सहज अनुभव प्रमाण परंपरा ही सुख, शान्ति, संतोष, सहज वैभव, सर्वसुलभ होना आनंद है।
  4. 12.4 जीवन वैभव व प्रमाण अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित होता है।
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