सद्शास्त्राध्ययन के बिना सत्य कामना एवं प्रवृत्ति, सत्य कामना के बिना सत्य-प्रेम, सत्य-प्रेम के बिना सत्य-निष्ठा, सत्य-निष्ठा के बिना सत्य-प्रतिष्ठा, सत्य-प्रतिष्ठा के बिना सत्य-प्रतीति, सत्य-प्रतीति के बिना सत्यानुभव, सत्यानुभव के बिना सद् शास्त्र का उद्घाटन तथा सद् शास्त्र के उद्घाटन के बिना सद् शास्त्र का अध्ययन पूर्ण और सार्थक नहीं है ।
सत्य प्रतीति व अनुभूति में ही मानवीयता पूर्ण आचरण एवं न्याय पूर्वक व्यवहार में निष्ठा पाई जाती है ।
मानवीयता पूर्ण आचरण व न्याय पूर्वक व्यवहार के बिना परस्परता में न्याय सम्मत विनिमय व न्याय सम्मत हित होना संभव नहीं है ।
न्याय सम्मत विनिमय और हित ही समृद्धि है ।
अन्याय पूर्ण लाभ और हित ही दुख और समस्या के रूप में प्रत्यक्ष है ।
अनुभवमूलक बोध सहज जीवन ही मानवीयता एवं अतिमानवीयता के रूप में प्रत्यक्ष है ।
सद्व्यय के बिना सत्य-प्रेम, सद्-प्रवृत्ति, सत्कर्म, सुख, शाँति, संतोष एवं आनन्द नहीं है ।
मानव सत्यज्ञान, सत्यता के दर्शन-योग्य अध्ययन, कर्म व आचरण करने के लिये उन्मुख है, क्योंकि इसकी संभावना एवं आवश्यकता है, जो विधिवत् जीवन है ।
मानवीयतापूर्ण अथवा मानवीयता में प्रत्येक कार्यक्रम विधि और व्यवस्था है । उसका आचरण ही सभ्यता और उस परम्परा का निर्वाह ही संस्कृति है ।
मानव में दुख, अशान्ति, असंतोष ही द्वन्द्व है और यही द्वन्द्व का फल भी है ।
मानव के लिये अशेष परिस्थितियाँ उनसे सम्पादित कर्म, उपासना, ज्ञान-योग्य-क्षमता से ही निर्मित होती हैं । यही परिस्थितियाँ उचित-अनुचित वातावरण का रूप धारण करती हैं ।