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जागृत मानव का आचरण एवं व्यवहार ही व्यवस्था है जो शांति का कारण है ।

जहाँ तक मानव का सम्पर्क है वहाँ तक दायित्व का अभाव नहीं है ।

संबंध में दायित्व का निर्वाह होता ही है ।

संबंध में दायित्व प्रधान कर्त्तव्य और संपर्क में कर्त्तव्य प्रधान दायित्व वर्तमान है । यही सामाजिकता है ।

सर्व सम्मति योग्य शान्ति, समाधान एवं समृद्धि के कारण बोध सहित विधिवत् व्यवस्था प्रक्रिया द्वारा शुभ वातावरण का निर्माण होता है । ऐसी स्थिति में सद्-शास्त्र-सेवन एवं अभ्यास सर्व सुलभ हो जाता है ।

अखण्ड सामाजिकता को प्रतिपादित करने योग्य शास्त्र व विचार, प्रचार-सम्पन्न सामाजिक कार्यक्रम, परिष्कृत विधि-व्यवस्था और विधान सम्पन्न व्यवस्था, आचरण सम्पन्न व्यक्ति, उसके प्रोत्साहन योग्य परिवार ही अखण्ड समाज का प्रत्यक्ष रूप है । यह मानव की चिर आकाँक्षा और प्रमाण है । यही तृष्णा है और इसकी संभावना भी है ।

मानव को जीवन की प्रत्येक स्थिति में शान्ति एवं स्थिरता की आवश्यकता है । सद् शास्त्र सेवन, मनन एवं आचरण से व्यक्ति तथा परिवार में शान्ति तथा स्थिरता पाई जाती है।

समग्रता के प्रति निर्भ्रमता को प्रदान करने, जागृति की दिशा तथा क्रम को स्पष्ट करने, मानवीय मूल्यों को सार्वभौमिक रूप में निर्धारित करने, मानवीयता से अतिमानवीयता के लिये समुचित शिक्षा प्रदान करने योग्य-क्षमता-सम्पन्न शास्त्र तथा शिक्षा प्रणाली ही शान्ति एवं स्थिरतापूर्ण जीवन को प्रत्येक स्तर में प्रस्थापित करने में समर्थ है । इसके बिना मानव जीवन में स्थिरता एवं शान्ति संभव नहीं है, जो स्पष्ट है ।

मानव सुख, शान्ति, संतोष और उसकी स्थिरता के उपलक्ष्य (उपाय सहित लक्ष्य) की और गतिशीलता में ही समस्त कर्मों को करना चाहता है ।

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