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समाज एवं सामाजिकता के बिना मानव जीवन में कोई मूल्य तथा कार्यक्रम सिद्ध नहीं होता है ।

कार्यक्रम विहीन मानव नहीं है ।

कार्यक्रम ही कर्म है ।

कर्म मात्र ह्रास या विकास एवं जागृति के लिये सहायक है ।

ह्रास या विकास की ओर गतिशील न हो ऐसी कोई इकाई जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति में नहीं है ।

ज्ञान, विवेक और विज्ञान ही जागृति की पूर्णता के लिये एक मात्र आधार है । ऐसी क्षमता से सम्पन्न होने के लिये ही परिष्कृत कर्मों में प्रवर्तन है । यही मानव की पाँचों स्थितियों एवं चारों आयामों में वर्तनीय है ।

यथार्थ दर्शन-विहीन अन्तर्राष्ट्र; समाधान विहीन कार्यक्रम एवं कोष-विहीन व्यवस्था; धर्म-पतित, निश्चय-विहीन समाज; सच्चरित्र-रहित कुटुम्ब; सदाचरण से रिक्त व्यक्ति सतत चिन्तातुर हैं ।

धर्म का प्रत्यक्ष रूप ही सामाजिकता है । यही संस्कृति व सभ्यता है ।

मानव सहज परस्परता में निर्विषमता के लिये ही संस्कार, संस्कृति व सभ्यता की अनिवार्यता है । यही उपादेयता भी है ।

समग्रता के प्रति रहस्यविहीन दर्शन को धारण करने में असमर्थ अन्तर्राष्ट्र, सत्यता के संरक्षण में एवं संवर्धन प्रक्रिया में असमर्थ (राष्ट्र) व्यवस्था, सत्यता का प्रचार करने में असमर्थ समाज, सत्यता का अनुसरण करने में असमर्थ परिवार, सत्यतापूर्ण आचरण करने में असमर्थ व्यक्ति घोर क्लेश से पीड़ित है ।

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