विषयाधार पर आधारित विधि-विधान सम्पन्न शासन प्रक्रिया में स्व-पर लाभ-हानि होती है । इसमें समाज की कोई व्याख्या नहीं है । समुदाय ही इसकी सीमा है ।
विवेकपूर्ण विचार, उपासना-इच्छा सहित किया गया प्रत्येक कर्म सभी स्तर पर श्रेयस्कर होता है ।
दर्शन-क्षमता जागृति पर; जागृति, आकाँक्षा एवं आचरण पर; आकाँक्षा एवं आचरण शिक्षा एवं अध्ययन पर; शिक्षा एवं अध्ययन व्यवस्था पर; व्यवस्था, दर्शन क्षमता एवं समझदारी के आधार पर होना पाया जाता है ।
ज्ञानानुकूल यत्न, यत्नानुकूल कार्य, कार्यानुकूल फल-परिणाम, फल-परिणाम के अनुकूल अनुभव, अनुभवानुकूल में ही ज्ञान स्पष्ट हुआ है, जो प्रसिद्ध है ।
तीन प्रकार के कर्म-फलों को पाने के लिये ही मानव आद्यान्त कार्य करता है ।
स्वार्थ, परार्थ, परमार्थ के लक्ष्य भेद से सम्पूर्ण कर्म सम्पन्न होते हैं ।
मध्यस्थ-बुद्धि योग में, सम-बुद्धि सत्कर्म में प्रवृत्त पायी जाती है । सम्पूर्ण कर्म वैविध्यताएं मानवीयता में सविरोधी स्थिति से मुक्त हो जाती है । इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य “नियम-त्रय” का आचरण ही है ।
प्रत्येक योग और वियोग में मूल्यों की प्रतीति एवं नियोजन पाया जाता है ।
संयोग से भाव, भाव से क्रिया, क्रिया से संयोग यही सापेक्षता एवं व्यवहार-क्रम-चक्र है ।
सामाजिक मूल्यों का निर्धारण एवं निर्वाह करने की क्षमता ने ही सामाजिकता पूर्ण व असामाजिकता सहित व्यक्तित्व को स्पष्ट किया है । यही मानव के ह्रास और विकास का परिचायक है ।
उच्च और नीच प्रकार से परस्पर में भाव क्रियायें सम्पन्न होती हैं जिनसे ही उनके विकास का परिचय होता है ।