है । भाषा का अर्थ है अस्तित्व में वस्तु होना सुस्पष्ट हो चुकी है, भाषा के अर्थ के स्वरुप में अस्तित्व में वस्तु बोध होना ही अध्ययन का मूल आशय है । यही प्रत्यावर्तन क्रिया है । सहअस्तित्व में हर वस्तु बोध अनुभव मूलक विधि से परावर्तित हो पाती है । इस विधि में अध्ययन कार्य अनुभवगामी पद्धति से होना स्पष्ट हुई । यही प्रत्यावर्तन की महिमा है अथवा उपलब्धि है । इस विधि से परावर्तन अध्यापन क्रिया है । अर्थ बोध होना और अनुभव होना अध्ययन का फलन है । अर्थ बोध तक अध्ययन, अनुभव, प्रत्यावर्तन का अमूल्य फल है । अर्थ बोध का अनुभव के अर्थ में प्रत्यावर्तित होना एक स्वभाविक क्रिया है । क्योंकि हर अर्थ का अस्तित्व में वस्तु बोध होता है । अनुभव महिमा की रोशनी से वंचित होकर अध्ययन में वस्तु बोध होता ही नहीं । अभी तक भी जितने वस्तु बोध हुई हैं, ये सब अनुभव में ही प्रमाणित होकर अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुए हैं ।

मानव का अध्ययन वस्तु बोध के रुप में होना संभव नहीं हो पाया है । क्योंकि मानव की संपूर्णता रासायनिक भौतिक सीमा में न होकर, अथवा रासायनिक भौतिक वस्तुओं की महिमा शरीर तक ही सीमित रहने के आधार पर, मानव का सम्पूर्ण अध्ययन होना संभव भौतिकवाद के अनुसार नहीं हुआ । हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रुप में ही विद्यमान है और परंपरा के रुप में वर्तमान है । परंपरा के लिए शरीर एक प्रधान आधार है । परंपरा का मतलब ही होता पीढ़ी से पीढ़ी अथवा वंश परंपरा ही रहा है । शरीर परंपरा, रचना विरचना के आधार के रुप में ही सीमित है । जबकि मानव परंपरा में जीवन और शरीर संयुक्त वरीय स्थिति को प्रमाणित करता है । अर्थात् शरीर से अधिक महिमाओं को स्पष्ट कर देता है । शरीर हो, जीवन न हो, ऐसी स्थिति में मानव होता नहीं है । इसलिए मानव संज्ञा में जीवन और शरीर के संयुक्त रुप की ही स्वीकृति है । यह भी मानव की समझ में आ चुका है । शरीर ही जीवंत और निर्जीव होता है, निर्जीवता जीवन का वियोग ही है । जीवंतता ही जीवन और शरीर का सम्यक प्रकाशन है, अभिव्यक्ति है । इसी क्रम में मानव संतुष्टि और जीवन संतुष्टि को पहचानना एक आवश्यकता रही है । मानव संतुष्टि के साथ जीवन संतुष्टि सार्थक होता ही है । इस तथ्य का अध्ययन पहले स्पष्ट हो चुकी है । मानव संतुष्टि का लक्ष्य के रुप में होना, मानव जीवन सार्थक होता हुआ प्रमाणित होता है । इसी क्रम में मानव अध्ययन करने के लिए अनुभवमूलक विधि से अनुभवगामी पद्धति को अपना लिया । उसी का यहाँ स्पष्टीकरण और उल्लेख है । मानव का सहज विधि से जीवन तृप्ति का ध्यान इसीलिए आवश्यक है कि जीवन बल, शक्ति का नियोजन पूर्वक ही शरीर संरक्षण, पोषण, समाज गति स्पष्ट होती है । जीवन न होने की स्थिति में शरीर का संरक्षण, पोषण नहीं हो पाता

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