वाला आहार, विहार, व्यवहार ही है । व्यवहार सेवन से संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति सहित संबंधों का सेवन होता है । ऐसे सेवन में सेव्यता और सेवकीयता दोनों समाया रहता है । सेव्य, सेवा विद्या में संपूर्ण संबंध, प्रयोजनों के अर्थ में निर्वाह किया जाना बनता है । फलस्वरुप प्रयोजन का सेवन होता ही है । प्रयोजनों का मुख्य रुप जागृति, व्यवस्था में मानव और आकाँक्षा का प्रमाण ही है । इन प्रयोजनों के अर्थ में हर संबंध को पहचानना, समझदारी की महिमा है । मानव में कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता से समझदारी, ईमानदारी और भागीदारी पर्यन्त जो अध्ययन, प्रयोग और प्रमाण वैभव है, केवल मानव में ही प्रमाणित है । यह सर्व मानव में, से, के लिये समान है; चाहे छोटा हो, बड़ा हो, दुर्बल हो, पतला हो, गोरा हो, काला हो, धरती के किसी भी अंगभूत देशों में हो, काल में हो; सभी मानव में समझदारी की सम्भावना, उपलब्धि सम्भावना समीचीनता समान है । उपलब्धि का प्रमाण, यह मानव परम्परा में व्यवस्था पूर्वक स्पष्ट होने का सम्पूर्ण गौरवमयी ढांचा खांचा होना पाया जाता है । ऐसा ढांचा खांचा अथवा यह वैभव मानव का परावर्तन-प्रत्यावर्तन विधि से प्रमाणित हो पाता है । इसका दूसरा कोई मापदण्ड व प्रक्रिया होता नहीं । समझदारी का परावर्तन-प्रत्यावर्तन प्रयोजन के चलते मानव अपने में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रुप में सूत्र और व्याख्या परावर्तित-प्रत्यावर्तित होना ही प्रमाण है । यही अध्ययन, अध्यापन, मूल्य, मूल्यांकन, समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रुप में प्रमाणित होना, सर्वथा सुलभ व स्वीकृत है । यह प्रमाणित होना ही परावर्तन-प्रत्यावर्तन का प्रयोजन है । यही मानव परम्परा का भी प्रयोजन है । यही नियति विधि से गम्य स्थलीय है । यही सर्व मानव की आवश्यकता है ।
13. दबाव, प्रवाह, तरंग, विद्युत चुम्बकीय बल
दबाव - स्वभाव गति से भिन्न, सम विषम आवेश के लिए प्राप्त विवशतायें दबाव है ।
प्रवाह - निरन्तर रस द्रव्य का ढाल की ओर गति प्रवाह है ।
तरंग - ठोस, तरल, विरल में भिन्न-भिन्न रुप में भिन्न-भिन्न तरीके से तरंग होना पाया जाता है। ठोस वस्तु में कम्पनात्मक गति के रुप में तरंग है । तरल (पानी) में हवा के संयोग से अथवा किसी पदार्थ, जीव-जानवर, मानव के संयोग से उत्पन्न प्रतिक्रिया तरंग के रुप में है । जैसे, मानव के पत्थर फेंकने से, कूदने से, हवा के दबाव से पानी कम्पानत्मक गति (ऊपर नीचे होता