है । इसके विपरीत ऐसे शरीर को मृत शरीर घोषित किया जाता है और विसर्जन किया जाता है । इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि शरीर, पोषण, संरक्षण जीवंतता पूर्वक ही संपन्न होता है । इसलिए जितना हम जान पाते हैं, उससे कम चाह पाते हैं, जितना हम चाह पाते हैं, उससे कम कर पाते हैं, जितना हम कर पाते हैं, उससे कम भोग पाते हैं । परिणाम पता लगता है कि भोगने की जहाँ तक सीमा है, वह शरीर ही है । शरीर के पोषण, संरक्षण के लिए वस्तुओं का उपयोग पहचान लिया गया है, और समाज गति के लिए उपयोगी वस्तुओं के क्रिया-प्रक्रिया को भी पहचान लिया गया है । समाज गति के लिए प्रयुक्त होने वाले अथवा उपयोगी होने वाले दूर संचार यंत्रों उपकरणों को दूर संचार नाम दिया जाता है, जिसमें दूर गमन, दूरदर्शन, दूर श्रवण समाहित हैं ।

जागृत मानव परंपरा में वस्तुओं का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील विधियाँ निष्पन्न होती हैं और प्रमाणित होती हैं । उपयोगिता अर्थात् वस्तु की उपयोगिता की सीमा परिवारगत आवश्यकता के रुप में स्पष्ट होती है । आवश्यकता से अधिक उत्पादन मानव परंपरा में इसलिए संभव हो गया है कि जो कुछ भी उत्पादन करते हैं, जितना भी उत्पादन करते हैं, उतने को भोग नहीं पाते हैं । इसलिए आवश्यकता से अधिक उत्पादन सूत्र स्पष्ट हो जाता है । यह आवश्यकता से अधिक उत्पादन, इस विधि से सहज हो गया कि जीवन में अक्षय शक्ति और बल का होना, जीवन और शरीर के संयुक्त रुप में उत्पादन कार्य संपन्न होना, इसका उपयोग शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति के रुप नियोजित होना जो सीमित रहना अर्थात् जिसकी सीमायें निर्धारित रहना होता है । यह स्वभाविक है, यह अभी मानव परंपरा भ्रमित रहने के स्थिति में भी देखा गया है कि कम से कम लोग उत्पादन कार्य में लगे हैं, ज्यादा से ज्यादा लोग उपयोग करते रहते हैं । जागृति के पहले से ही आवश्यकता से अधिक उत्पादन मानव कुल में संपादित होने का प्रमाण स्पष्ट है । ऐसे होते हुए भी भटकने का कारण एक ही है, हमें पढ़ाई में यह बताया जाता है- “आवश्यकता अनंत है, साधन सीमित है इसलिए संघर्ष पूर्वक ही हम अपने आवश्यकता को पूरा कर पायेंगे ।” इस नजरिये से मानव का संग्रह सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देना, संग्रह-सुविधा का तृप्ति बिन्दु न मिलना, आवश्यकता को अनंत मान लिया । यही भटकाव, और भ्रम का आधार है । इस चक्कर से हम तभी छूट पायेंगे, जब यह स्पष्ट और प्रमाणित हो जाय कि हर परिवार की आवश्यकता सीमित है, आवश्यकता को पूरा करने की संभावना ज्यादा है, जीवन शक्तियाँ अक्षय हैं, जीवन और शरीर के संयुक्त रुप में ही उत्पादन होता है, शरीर की आवश्यकता

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