लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई को मापा जाता है । इसी क्रम में पेड़, पौधे, पत्थर, मणि, धातु भी अपने-अपने ढंग की रचना होना, उसका माप तौल के साथ पहचान होना पाया जाता है । इस विधि से रचना की महिमा, रचना के साथ उसकी अवधि, इनमें परस्पर पूरकता और उपयोगिता अपने आप स्पष्ट होती रहती है ।

रचना के आधार पर ही विरचना और पुनः रचना की बात स्पष्ट होती है । धरती अपने में रचना, इसकी निरंतरता के अर्थ में, विकास क्रम में विकास को स्पष्ट करने और जागृति को स्पष्ट करने के अर्थ में विद्यमान है । क्योंकि, इस धरती पर चारों अवस्थायें प्रमाणित हो चुकी हैं । धरती अपनी रचना तक सीमित रहती है । इस धरती पर सभी अवस्था और पद प्रमाणित हो चुकी है, शून्याकर्षण में वर्तमान हो चुकी हैं । इस आधार पर रचना अगर सम्पूर्ण वैभव संपन्न होता है, तब ये चारों अवस्थायें प्रकट हुआ करते हैं । चारों अवस्थाओं सहित इस धरती की महिमा और गरिमा सुस्पष्ट हो चुकी है । जैसे, धरती पर चारों अवस्थायें नहीं होते, तब मानव भी नहीं होता। मानव, होने के पश्चात् ही, भ्रमवश धरती विरोधी कार्य किया है । वहीं जागृति पूर्वक इस धरती के अनुकूल अर्थात् विकास और जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में मानव अपने को व्यवस्थित कर लेना, प्रमाणित कर लेना, कार्य व्यवहार को स्पष्ट कर लेना आवश्यक व समीचीन है ।

दिशा और दृष्टि

दिशा के संबंध में मानव सूर्य के सम्मुख खड़े हो कर आगे, पीछे, दाहिने, बायें के रुप में दिशा को पहचानना प्रचलित है । इसे नाम भी दिया जा चुका है- पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, यह भी प्रचलित है । इसके बाद दिशा के मूल उद्गमन और प्रयोजन के बारे में सोचना एक स्वभाविक क्रिया रही । हर मुद्दा सहअस्तित्व में, से, के लिए ही निर्धारित होना पाया जाता है । इस प्रकार दिशा भी सहअस्तित्व के अर्थ में ही निर्धारित होना स्वभाविक है । सहअस्तित्व में पूरकता, उपयोगिता विधि समाया ही रहता है । इस क्रम में दिशा को पहचानने के लिए किसी एक को धु्रव रुप में पहचानना आवश्यक है । जैसा मानव को धरती के साथ हम धु्रव रुप में पहचानते हैं । एक बिन्दु अनेक अंशों का केन्द्र बना जाता है । केन्द्र से कुछ दूरी पर दो अंशों को सरल रेखा से जोड़ने पर कोण बन जाता है । इस विधि से प्रत्येक एक अनन्त कोण संपन्न होना समझ में आता है अंशों का संयोजन विधि से ही कोण होना स्पष्ट होता है ।

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