आवश्यक प्रक्रिया है । यह हर मानव में शोध पूर्वक पहचाना जा सकता है अपने में भी, अन्य में भी ।

दिशा, देश को पहचानने के लिए दृष्टि संपन्नता का होना एक अनिवार्य स्थिति है । इसके बिना दिशा निश्चयन, पहचान और उपयोगिता का प्रमाण संभव नहीं है । इसमें प्रधानतः दृष्टि के संदर्भ में, दृश्य को पहचानने के संदर्भ में, इन पहचानने के आधार पर उपयोगिता, पूरकता, प्रयोजन को प्रमाणित करने के संदर्भ में, मानव ही एक मात्र समर्थ इकाई है । मानव को दिशा को निर्धारित कर लेने की आवश्यकता इस धरती पर है । धरती से बाहर विद्यमान ग्रह गोल से भी वास्ता है । इस क्रम में आकाश में गतित होने के लिए भी दिशा निर्धारण एक आवश्यक स्थिति है । जल यात्रा में भी आवश्यक है । धरती पर गाँव से गाँव जाने के लिए दिशा निर्धारण अतिआवश्यक है । जागृतिक्रम, जागृति को पहचानने के लिए भी निश्चित दिशा चाहिए । इस प्रकार मानव की प्रवृत्तियाँ बहु आयामी होने के आधार पर, बहु कोणीय होने के आधार पर, दिशा निर्धारण होने के आधार पर ही कार्य निर्धारण होना पाया जाता है ।

भूचर, जलचर, नभचर विधि से हमें जहाँ गतित होना है, उसके लिए गम्य स्थली को निर्धारित करने की आवश्यक रहती ही है । ऐसे निर्धारण के उपरान्त ही निश्चित लक्ष्य, गम्य स्थली के लिए निश्चित दिशा विधि से ही पहुँच पाते हैं । इसे हर व्यक्ति, छोटे से छोटे, बड़े से बड़े मुद्दे पर परीक्षण कर सकता है ।

इसके आगे यह भी सुस्पष्ट हो गया कि दृष्टि के बिना दिशा अपने में निर्धारित होती ही नहीं । दृष्टि के साथ ही दिशा निर्धारण हो पाता है । दृष्टि का केन्द्र मानव ही है । मानव में ही समझने की दृष्टि समाहित रहती है । चक्षु तंत्र के साथ ज्ञान तंत्र सोच, विचार, साक्षात्कार, चित्रण सहित बोध, अनुभव क्रियायें मानव में संपन्न होती हैं । इसके लिए मानव में जीवन और शरीर के सहअस्तित्व को पहचाने रहना आवश्यक है । इस मुद्दे पर पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है ।

दृष्टि मानव में सहअस्तित्व विधि से ही सभी आयाम, कोण, परिप्रेक्ष्यों में सार्थक होना स्पष्ट है । इसीलिए दृष्टि पूर्वक ही लक्ष्य, दिशा निर्धारण होना समझ में आता है ।

कोण

कोण के संदर्भ में, किसी एक इकाई को एक केन्द्र बिन्दु के रुप में पहचानने के उपरान्त बिन्दु में अनेकानेक अंश समाया हुआ सुस्पष्ट हो चुका है । कितने भी अंशों की हम परिकल्पना कर

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