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उच्च भावपूर्ण परिवार, सम-मध्यस्थ-संयोगपूर्ण समाज, मध्यस्थ-सम-योगपूर्ण व्यवस्थातन्त्र एवं व्यवहार ही सर्वमंगल कार्यक्रम है ।

स्पष्ट दर्शन क्षमता के बिना सत्कर्म का निर्धारण नहीं है । दर्शन क्षमता ही सम-विषम-मध्यस्थ, क्रिया-प्रक्रिया, प्रयोजन का निर्णय करती है । साथ ही आचरण, व्यवहार, व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली में पूर्णता स्थापित करती है ।

व्यवहार के लिये ज्ञान, विवेक और विज्ञान, उत्पादन के लिये ज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञानपूर्ण ज्ञान अनिवार्य है । ऐसा ज्ञान प्रत्येक जागृत व्यक्ति की क्षमता व आवश्यकता के अनुसार प्रकट एवं व्यवहृत होता हुआ पाया जाता है ।

व्यवहारिक मूल्यों का निर्धारण विवेचना पूर्वक ही होता है ।

विवेचनायें जीवन के अमरत्व, शरीर के नशवरत्व एवं व्यवहार नियम के अनुसार है ।

व्यवहारिक मूल्य मानवीयता के अर्थ में सार्थक होते हैं । इसके आधार पर नियम-त्रय (बौद्धिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक) सिद्ध हुई है ।

मानव सहज परस्परता में किया गया आचरण एवं निर्वाह सहअस्तित्व विधि से सार्थक तथा असहअस्तित्व विधि से असार्थक और समस्या है ।

यथार्थ ज्ञान-क्षमता का प्रत्यक्ष रूप ही मानवीयतापूर्ण आचरण है ।

समझने की क्षमता ही परस्परता में ज्ञान सहज उद्घाटन है ।

समझने की क्षमता व्यंजनीयता है । इकाई की मूल व्यंजनीयता सत्ता में सम्पृक्तता ही है। सम्पृक्तता की अनुभूति ही पूर्ण व्यंजनीयता है । चैतन्य ईकाई की व्यंजनीय क्षमता में गुणात्मक परिमार्जन ही संस्कार है, यही दर्शन-क्षमता एवं अनुभव क्षमता है । परिमाण एवं सीमा का दर्शन और सत्य में अनुभव प्रसिद्ध है । व्यंजनीयता क्षमता क्रम ही जागृतिक्रम को और जागृति को प्रकट करता है ।

मानव दर्शक व दृश्य सहअस्तित्व रूप में प्रकट वर्तमान है - यही दर्शन पृष्ठभूमि है ।

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