प्रकटन को प्रमाणित करने के लिये दर्शक का रहना आवश्यक है । दर्शक ही व्यंजनीय-क्षमता से प्रतिष्ठित है ।
प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है । यही दृश्य राशि है ।
प्रत्येक दर्शक भी दूसरे दर्शक के लिए दृश्य है । प्रत्येक इकाई अपने जागृति के अनुरूप दर्शक है ।
मानव जीवन के आद्यान्त कार्यक्रम एवं आचार तीन प्रकार से गण्य है-(1) सत्याचार, (2) लोकाचार और (3) विषयाचार । ये क्रम से उत्तम, मध्यम एवं अधम की परिगणना में है।
मानवीयतापूर्ण आचरण ही अवधारणा सहज प्रमाण है । अवधारणा ही निवृत्ति में प्रमाणित होती है । निवृत्ति ही संवेग व विवेक, संवेग व विवेक ही अनुगमन व अनुसरण, अनुगमन व अनुसरण ही उद्घाटन, उद्घाटन ही प्रकटन, प्रकटन ही प्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष ही प्रमाण, प्रमाण ही अनुभूति, अनुभूति ही क्षमता योग्यता और पात्रता, क्षमता योग्यता व पात्रता ही स्थितिवत्ता, स्थितिवत्ता ही विभव, विभव ही वैभव और वैभव ही आचरण है ।
दृष्टा पद ही दर्शन क्षमता का प्रतिरूप है और व्यवहार उसके अनुरूप है जो प्रसिद्ध है । विचार के अभाव में शरीर द्वारा कोई कार्य-व्यवहार सिद्ध नहीं होता या प्रत्यक्ष नहीं होता । इससे स्पष्ट हो जाता है कि शरीर द्वारा किए जाने वाले संपूर्ण क्रियाकलापों के मूल में विचार ही है । शरीर विचार नहीं है। यह विचार को प्रसारित करने का माध्यम है । इस निष्कर्ष से विचार, शरीर से अतिरिक्त है और यह चैतन्य क्रिया है ।
वैचारिक क्षमता मानव की पाँचों स्थितियों में स्थित है ।
इसीलिए सर्वमानव क्षमता में समान है ।
वैचारिक क्षमता के परिमार्जन हेतु सत्मार्ग एवं शुभकारी योगाभ्यास प्रसिद्ध है । चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक संस्कार में गुणात्मक परिवर्तन है यही सर्व शुभकारी है । पुनः यही वैचारिक क्षमता है । यह क्रम मानवीयता तथा अतिमानवीयतापूर्ण आचरणों से सम्पन्न होते