वर्तमान अगर शून्य हो जाय, मानव के आचरण को कहाँ पहचाने, व्यवहार को कहाँ पहचाने, मानव ज्ञान विज्ञान विवेक को पहचानने की जगह कहाँ है ? इसीलिए मानव समस्या ग्रस्त होकर समस्या को घटित करने लग गया । इसको अपना बहादुरी माना, इसी में मानव परंपरा काफी डूब चुकी है । आगे बचने का रास्ता यही है- सहअस्तित्व नित्य वर्तमान, विकास और जागृति का नित्य प्रकाशन, विकास व जागृति को प्रमाणित करने वाला एक मात्र मानव होने को पहचानने के आधार पर ही मानवाकाँक्षा, जीवनाकाँक्षा पूरी हो पायेगी ।
16. प्राणावस्था, मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव
प्राणावस्था के मूल में यौगिक विधि, प्रवृत्ति स्वंय स्फूर्त विधि से होना पाया जाता है । इसके लिए अनुकूल परिस्थिति के संबंध में अध्ययन किया जाय तो केवल ब्रह्माण्डीय किरण और धरती पर अनेक प्रजाति के परमाणुओं से अपने आप में समृद्ध रहना ही, पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ता है । इस धरती पर यौगिक पृष्ठभूमि के बारे में सोचा जाय, तो इससे अधिक कोई कारण नहीं है । ब्रह्माण्डीय अनुकूलता बनाये रखने में ब्रह्माण्डीय किरण विकिरण ही एक मात्र स्रोत है । आज भी यह चीज इस धरती के वातावरण तक प्रस्तुत ही है । किरण जो कुछ भी पहुँच पाता है, वह सब धरती की स्वयं के प्रकाश में अधिक प्रमाणित होते हैं । उसी के साथ-साथ, उष्मा का भी संबंध धरती से बना ही है । धरती एवं धरती में सभी परमाणु प्रभावित है, ऐसे स्थिति में और जो स्रोत हैं, वे विकिरणीय स्रोत ब्रह्माण्डीय क्रिया-कलापों के प्रभाव स्वरुप अनेक धरतीयों से निष्पन्न या प्रसारित विकिरणीयता का संचार ही रहता है । यह अभी भी बना है । इसी के साथ, यह धरती अनेक प्रजाति के परमाणुओं से समृद्ध होने के आधार पर, इस धरती में भी बहुत सारे विकिरणीय द्रव्य काम कर रहे हैं । इस ढंग से किरण, विकिरण, उष्मा के संयोग से ही सम्पूर्ण यौगिक क्रिया होने की पृष्ठभूमि रही है । यौगिक घटनायें, पानी की घटना से चलकर अम्ल और क्षार रुप में यौगिक घटनायें घटित होने की संभावना की पृष्ठ भूमि को स्वीकारा जा सकता है । क्योंकि अभी भी प्रकारान्तर से अम्ल, क्षार, पानी के संयोग से, विभिन्न अनुपात क्रम में, विभिन्न प्रकार के रसायन द्रव्य तैयार हुआ रहना अपने सम्मुख है । इनके अनुपातों में जो कुछ भी परिवर्तन के लिए सहायक होना है, वह कार्बनिक और अन्य प्रजाति के अणु परमाणुओं की सहायता सदा-सदा से रही । इस प्रकार अम्ल, क्षार और पानी के साथ-साथ उक्त अणु-परमाणु, रासायनिक वस्तु की प्रजातियों की संख्या को बढ़ाने में सहायक होता हुआ पाया जाता है ।