है, सबके शरीर में लाल ही होता है । ऊपरी हिस्से से रंग का पता लगता है । प्राणकोषायें शुष्क होने के उपरान्त जो प्रदर्शन करते हैं, इसी को हम रंग के रुप में जान पाते हैं । इसीलिए रंग के आधार पर मानव को पहचानना, मानव को पहचानने के अर्थ में सटीक नहीं हुआ । इसीलिए परस्पर मानव को सटीक पहचानने का प्रयास जारी रहा है । यह भी सोच सकते हैं, बहुत पहले से भी परस्पर पहचानने के लिये रंग प्रधान रहा, और कोई आधार खोजते रहे । इसी के साथ नस्ल भी बहुत प्रधान रह गए । काफी समय तक मानव रंग और नस्ल प्रधान विधि से अपना पहचान बनाये रखने के लिए कोशिश किया । अभी भी इसका गवाही जगह-जगह मिलता है । यद्यपि मानसिक रुप में इस जगह में से अर्थात् वंशानुषंगी पहचान विधि से रंग, नस्ल विचार से विचलित हो चुके हैं ।
इस क्रम में मानव कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता को ज्ञान विधा में सार्थक बनाने दौड़ा । तब संसार की विविधता का अध्ययन न होने की कमजोरी के कारण, ज्ञान मीमांसा चाहते हुए, ज्ञानी होना चाहते हुए, ज्ञानी होने के लिए प्रस्तावित सभी तप, साधन, योग, अभ्यास करते रहे, किन्तु प्रमाणित होने की स्थली पर रिक्त रह गए । इसमें सांत्वना पाने के लिए उपाय रुप में शास्त्रों को आधार मान लिया । इस ढंग से धर्म ग्रन्थ, किताब प्रमाण माना गया । आदमी प्रमाण को प्रस्तुत करने वाला है, इसको स्वीकारा नहीं । ध्यान देने की बात यही है कि ज्ञान, विज्ञान, विवेक संबंधी प्रमाणों को कोई प्रस्तुत करेगा तो वह मानव ही होगा । इस तथ्य से ज्ञानाभ्यासी संसार को अथवा आगे पीढ़ी को सार्थक प्रमाण दे नहीं पाया ।
सहअस्तित्ववादी नजरिए में ज्ञान संचार, विवेक संचार ही प्रधान मुद्दे के रुप में प्रस्तुत हुई । इसके बिना भ्रम के चंगुल से छुटकारा नहीं पाएगा । इसी के लिए लोकव्यापीकरण करने का प्रयोग का शुरुआत, शुरुआत में ही ज्ञान, विज्ञान, विवेक का सम्पूर्ण अध्ययन, निर्णय लेने का सूत्र, सम्भावना की व्याख्या ये सभी चीज विकल्पात्मक प्रस्ताव में समाहित है । यहाँ उल्लेखनीय मुद्दा यही है चिरकाल से मानव शरीर यात्रा का जिक्र इस धरती पर है ही । जीवन अपने में शाश्वत रुप में, चैतन्य इकाई के रूप में, अक्षय शक्ति, अक्षय बल के रुप में विद्यमान वर्तमान है ही । यह अनुकूल परिस्थिति बने रहते हुए, परिवार में ही क्रमिक संयोग होते आए । सर्व प्रथम मानव ईश्वरीयता, ईश्वर ही कर्त्ता के रुप में शरणागत होने की बात सोची । इसका अंतिम छोर तिरोभाव ही कल्याणमय होने की स्थिति, इसी के लिए सारा ताना-बाना, इसमें मानव भरोसा न पाने के फलस्वरुप ही सुविधा संग्रह की ओर दौड़,यह सबको न मिलने के आधार पर इसमें