भिन्न तरीके अपनाना, ये स्वयं स्फूर्त विधि से आता रहा है । उसमें से चिन्हित रुप में, घर बनाना, कपड़ा बनाना, फसल उत्पादन करना, इन चीजों तक सकारात्मक भाग में आ गए । ये तीनों प्रकार के कृत्य जानवरों से सर्वथा भिन्न हो गए ।

इसी क्रम में शरीर रचना ज्ञान को पाने का प्रमाण भी साथ-साथ चलता रहा । मूल में बताई गई प्राण सूत्र, प्राणकोष, प्राणसूत्र में रचना विधि क्रम में आदि मानव से अभी मुख्य स्वरुप तक में प्रजाति यथावत् रहते हुए श्रेष्ठता जितना भी होना था, वह होता आया । इसमें मानव प्रवृत्ति का भी योगदान समाया रहना संभावित है । इस विधि से मानव का उत्थान क्रम श्रृंखला बनी । आज की स्थिति में शरीर रचना ज्ञान, उसकी मूलभूत प्रक्रिया, उसका नाप तौल, रोगों की परीक्षण विधि, दवाईयों का संयोजन, ये सबका सब व्यापार से अनुबंधित हुई या व्यापार के चंगुल में फँस गयी । इस विधि से ये पूरा सकारात्मक भाग कुछ लोगों के हाथ में गिरफ्त हो गई । इससे भी सर्वाधिक मानव को असुविधायें बनी हुई है । इस समस्या से मुक्त होने का सोच विचार चल ही रहे हैं ।

प्रधान मुद्दा शरीर रचना में प्राणकोषाओं की प्रवृत्ति, शरीर रचना मूलक में दो प्रजाति के प्राणकोषाओं का उत्सव, फलतः भू्रणावस्था से गुजरते हुए शरीर रचना अर्थात् अंग-अवयव, हाथ, पैर आदि की रचना, पाँच महीने पूरा होते तक गर्भाशय में शिशु रचना का पूर्ण होना शिशु रचना पूर्ण होने में समृद्ध मेधस तंत्र का होना, जीव संसार से अधिक समृद्ध पूर्ण मेधस तंत्र तैयार होना समझ में आता है । इन्हीं अवधि में जीवन का शरीर को संचालित करने के लिए तत्पर होना, इसका संकेत मां होने वाली नारी को समझ में आना, शिशु जनन के उपरान्त उसके संवर्धन के लिये 100 वर्ष पहले जैसा ध्यान देते रहे, 50 वर्ष पहले जैसा ध्यान देते रहे, उससे अधिक सटीक ध्यान आज दे पाना, आज की स्थिति में ये सब मानव के अध्ययन में आता है ।

इसमें रचना में विविधता के लिए प्राण सूत्रों में प्रवृत्ति के बारे में जिज्ञासा बनती है- क्यों होता है, कैसा होता है ? इस मुद्दे पर सोचने की आवश्यकता मानव में आता ही है । मुख्य मुद्दा रंग और रुप ही है, जिसमें विविधता हो पाता है । अंग अवयवों के कोई खास विविधता नहीं हो पाता । इस तथ्य को परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक समझ चुके हैं । कई प्रकार के रस द्रव्यों को आज का मानव सटीकता से पहचान चुका है । इसका अनुपातिक भिन्न-भिन्न प्रयुक्ति के आधार पर शरीर का रंग होना पाया जाता है । कुल मिला कर रंग, शरीर के ऊपरी हिस्से में अर्ध सूखा हुआ, सूखा हुआ प्राणकोषा की स्थिति में रंग का पता लगता है । चमड़े के अंदर जो रक्त होता

Page 135 of 166