इस प्रयोग से वांछित परिणाम अर्थात् स्वस्थ होने के स्थिति में रोग स्वरुप का निर्धारण किया गया था, जिसके आधार पर दवा नियोजित की थी, इस प्रक्रिया में विश्वास का उपार्जन, इस क्रम को कर्म अभ्यास का नाम दिया गया ।

आयुर्वेद विधि से उसकी कई विधि से रोग के बलाबल को पहचानना, उसी के अनुसार औषधि को पहचानना, वन औषधि के रुप में, खनिजों के रुप में, जीवों से उपलब्ध औषधि के रुप में पहचानना । इनका योग, संयोग, परिपाक विधि से औषधि के बलाबल को पहचानना, रोग से अधिक बलशाली औषधि का प्रयोग करना, यही कर्म अभ्यास रोग को पहचानने से रोग चिकित्सा तक अनुशासित रहना पाया जाता है । इसमें मूल मुद्दा यही है, हर आयुर्वेदज्ञ को परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है । फलस्वरुप-

रोगों को पहचानने औषधियों को पहचानने

रोगों के बलाबल को पहचानने औषधियों के बलाबल को पहचानने

पथ्य परहेज को पहचानने अनुपान को पहचानने

के सम्मलित रुप में जो प्रयोग कर पाते हैं इसे ही कर्माभ्यास कहते हैं । ये पूरा का पूरा ज्ञान, विज्ञान विधि से चलकर अनुपान, पथ्य परहेज तक पहुँच पाते हैं, इसके फल परिणाम के आधार पर परम्परा के रुप में प्रमाण तक पहुँच पाते हैं ।

इसमें मूल मुद्दा यही है, समझदार मानव परम्परा के उपरान्त, जितने भी ज्ञान, विज्ञान, विवेक सहित किया गया कर्म अभ्यास, स्वास्थ्य संयम विधा में लोकव्यापीकरण करने के पक्ष में ही कार्य करता हुआ, परिवर्तित होता हुआ देखने को मिलता है । दूसरे भाषा से, समझदार मानव परम्परा मानवीयता विधि से जीने के उपक्रमों, निष्ठाओं का वैभव ही लोकव्यापीकरण के पक्ष में उदित हो पाता है । समझदार मानव सहअस्तित्व वादी विधि से ज्ञान, विज्ञान, विवेक से सम्पन्न मानव व्यक्तिवादी न होकर परिवार से सार्वभौम व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी से संपन्न हुआ रहता है । इसीलिए अखण्ड समाज के अर्थ में ही कार्य-व्यवहार-विन्यास होना पाया जाता है । अर्थात् ऐसा समझदार मानव सामाजिक होना, सर्व शुभ को चाहना, सर्व शुभ के लिए स्वयं को प्रवर्तित रखना, प्रमाण होने का उम्मीद रखना, इसके लिए अभ्यास करना स्वभाविक होना पाया गया । यहाँ उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि सहअस्तित्ववादी नजरिये से समझदार

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