कर सकते हैं, शोध कर सकते हैं, जागृति के उपरान्त जीवन का वैभव, शरीर के द्वारा मानव परम्परा में प्रमाणित हो पाता है । यह परम्परा के लिए समाधान का प्रवाह है, समाधान प्रवाह में ही मानव परम्परा का वैभव मौलिक रुप में प्रमाणित हो जाता है । इसमें हर समझदार मानव भागीदारी करने के लिए इच्छुक है ही । इसलिए हर मानव समझदार होना ही चाहता है । इस प्रकार से हर मानव के समझदार होने का लोकव्यापीकरण की सम्भावना समीचीन है ।
इस बात पर हम पहले से स्पष्ट कर चुके हैं कि पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था समृद्ध होने के उपरान्त ही मानव का अवतरण इस धरती पर हुआ । अवतरण के मूल में प्राण सूत्र में रचना विधि में गुणात्मक परिवर्तन होना, यह परिवर्तन उत्सव विधि से सम्पन्न होना, फलस्वरुप मानव का अवतरण विभिन्न देश, काल, परिस्थिति के अनुसार जीवों से भिन्न समृद्ध मेधस सम्पन्न जीव शरीरों से निष्पन्न होने की बात स्पष्ट की । निष्पन्न होने के उपरान्त मानव में मौलिक अभिव्यक्ति, जीवों से भिन्न कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता ही रहा । यह आदि मानव में भी रहा, अभी भी है । इसके प्रयोग क्रम में परम्परा में जो कुछ भी ज्ञान हुआ, उपलब्धि हुई, वह स्वभाविक रुप से परम्परा ने अपनाया है । इस बीच उपयोगिता को स्वीकारा है निरर्थकता को छोड़ दिया है । इसी विधि से मानव की कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता का शोध होता आया है । इस विधि से शरीर रचना का यथावत रहना अर्थात् जितने बार भी दोहराया जा रहा है, अथवा पीढ़ी से पीढ़ी हो रहा है, शरीर रचना स्वरुप और शरीर रचना के मूल में सप्त धातु, इनका तालमेल यथावत बना ही रहा है । इन सभी गवाहियों के आधार पर हजारों वर्ष, लाखों वर्ष बीतने के बाद भी शरीर में समाहित द्रव्य, गुण, रचना विधि, अंग, प्रत्यंग और अवयव भी यथावत् ही हैं । मेधस तंत्र सदा-सदा कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता को पाँचों संवेदनाओं द्वारा, पाँचों प्रकार के कर्म इन्द्रियों द्वारा स्पष्ट करना होता ही आया है । पहले से ही कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की तृप्ति बिन्दु को पाने की परिकल्पना, प्रयास भी करते ही आया । अब भी वह यथावत् बनी हुई है । इन्हीं स्पष्ट स्थिति के आधार पर मानव अपने में परिभाषा के अनुसार मनाकार को साकार करने में सर्वाधिक सफल हो गया है । मनः स्वस्थता का पक्ष यथावत् रिक्त पड़ा हुआ है । यही आज की शोध का महत्वपूर्ण बिन्दु है । मनः स्वस्थता की वीरानी आबाद हो जाय, यही मुख्य मुद्दा है । सर्व शुभ कल्पना का आधार भी इतना ही है ।
इस 21 वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक जो मनाकार को साकार करने की विधा सर्वाधिक प्रमाणित हुई है, इसके मूल में जीवन सहज कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता में परिमार्जन होना है,