न कि शरीर में । भौतिकवाद के अनुसार, शरीर रचना के अनुसार चेतना निष्पत्ति होती है । ऐसा वास्तव में हुआ नहीं है । इसी आधार पर बड़ी जोड़-तोड़ से शरीर परिवर्तन के बारे में, रचना परिवर्तन के बारे में शोध करते-करते शरीर रचना विशेषता क्षत-विक्षत होकर प्रश्नों की झड़ी से दब गया है । जिसके ऊपर नोबेल पुरस्कार का भी निर्धारण हो चुका है । इस मुद्दे की सार्थकता, प्रमाण, उज्जवल भविष्य की सम्भावना को प्रस्तुत करने में सर्वथा असफल रहा । थोड़े समय पहले से ही शरीर रचना विज्ञान के अनुसार, रक्त की प्रजातियों की संख्या निश्चित हो गई, बाकी सब पहले से निश्चित थी । सभी मानव में मेधस तंत्र सब में समान है, यह भी पता लग गया । इसमें जाति, मत, सम्प्रदाय और रंग, नस्ल, भाषा, देश, काल की कोई दखल अंदाजी नहीं है । ये सभी निष्कर्ष शरीर रचना के अनुसार चेतना बहती है, ऐसा जो सोचते रहे वह गलत सिद्ध हो चुकी है । इसी आधार पर, क्लोनिंग तकनीकी की मूल मान्यता है कि एक मेधावी व्यक्ति जिसको हम मेधावी कहते हैं, के प्राण सूत्रों को परिवर्धित करने पर उनके जैसा ही समान शरीर तैयार हो सकता है, वैसी ही चेतना भी तैयार हो सकती है । यह भी भ्रम सिद्ध हो गया है । इसी के साथ व्यापार विधा में क्लोनिंग तकनीकी में जो विशेषज्ञ हैं, उनकी यह घोषणा ‘अपने प्रतिरुप को प्राप्त कर लो’ भी अर्थहीन हो गई है । पहले ये मान्यता थी कोई अच्छे बुद्धिमान व्यक्ति का एक इन्च चमड़े से हजारों, लाखों, अरबों अच्छे आदमी को तैयार कर लेंगे, जब तैयार कर लेंगे, कोई भी अपना संतान के रुप में अपना लेंगे, क्योंकि सभी अपने संतान को बुद्धिमान बनाना चाहते हैं । इसी क्रम में यत्न, प्रयत्न करके देखा गया, इसमें अभी तक किये प्रयोगों में जिन भेड़, बकरी, जीव-जानवर के साथ प्रयोग किया गया, मानव के साथ प्रयोग किया, वह हुबहू वैसे ही नहीं हो पाया । आंशिक व्यतिरेक बना ही रहा ।

इस मुद्दे पर यह कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं कि शरीर रचना जैसा प्राकृतिक विधि से दोहरा रहा है, वैसे दोहराया जाये । इतने मात्र से कोई बात सिद्ध नहीं होती । क्योंकि, पंडितों के संतान मूर्ख और मूर्खों के संतान पंडित होता हुआ देखा गया है । इसको ध्यान में रखना अति आवश्यक है ।

जीवन ज्ञान जब तक नहीं होता रहा, तब तक हम यह मानने के लिए तैयार थे, बाध्य थे कि वंश के अनुसार रुप, गुण, संस्कार होते हैं । इस प्रकार की मान्यता के साथ जातिवादी, वंशवादी श्रेष्ठता की बहस और वकालत पहले चली । ये सब आज की स्थिति में टूट चुकी है । ब्रह्मवाद, आत्मवाद, जातिवाद, नस्लवाद ये सभी वाद विवादग्रस्त हो चुके हैं । फलस्वरुप, शंकाओं का

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