घेरा बलवती होता जा रहा है । शरीर रचना के आधार पर चेतना निष्पन्न होने, बहने का जो आश्वासन था, वह भी विवादग्रस्त हो गया । अब आदमी कहाँ जाय, यही मुख्य मुद्दे की बात है । इसी 21वीं शताब्दी के पहले दशक तक 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक से शुरु हुई, एक विकल्पात्मक प्रस्ताव, सहअस्तित्व वादी विश्व दृष्टिकोण, मानव को एक अखण्ड समाज के रुप में, जाति, धर्म समझ अर्थात् ज्ञान, विज्ञान, विवेक और जीवन अर्थात् चैतन्य इकाई में समानता, अक्षय शक्ति, अक्षय बल के समानता और जागृति के स्वरुप में समानता को बोध कराने के लिए अध्ययन विधि प्रस्तुत हो चुकी है ।

इसी क्रम में जीवन तृप्ति और मानव तृप्ति की एकरुपता को पहचानने की आवश्यकता है, सार्थक बनाने की आवश्यकता है । इस विधि से अर्थात् सहअस्तित्व वादी नजरिये से मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रुप में विद्यमान है, प्रकाशमान है । ऊपर कही सारी कहानी के तात्पर्य में मानव शरीर में कोई विकास होना नहीं और शरीर में कोई विकास होता नहीं । जो कुछ भी महिमा आदि मानव से अत्याधुनिक मानव तक प्रकाशित हुई है, यह सर्वमानव में पाए जाने वाली कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता की अभिव्यक्ति है, यह भी स्पष्ट हो गई है । इसके तृप्ति बिन्दु को शोध, अनुसंधान करते हुए अर्थात् कर्म स्वतंत्रता का शोध अनुसंधान करते हुए, सुखी होने की आकाँक्षा ही है, इसी क्रम में मनाकार को साकार करना सार्थक हो गया । यह कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता की अभिव्यक्ति जीवन की महिमा है, न कि शरीर की । क्योंकि, शरीर प्राणावस्था की द्रव्य वस्तु, प्रक्रिया से ही सम्पादित हुआ है । ये पूरा रचना प्राणकोषा प्रधान है । ये प्राणकोषाऐं अपने क्षमता से अधिक होना संभव नहीं । मानव शरीर रचना के लिए जितना औकात स्थापित हुई, वह यथावत दोहराता हुआ दिखाई पड़ती है । कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, मानसिकता जो सर्व मानव में देखने को मिल रहा है । यह मानसिकता मूल स्वरुप में जीवन जागृति की ही एक प्रक्रिया है ।

जीवन में निरन्तर सम्पन्न क्रिया कलापों में से मन एक क्रिया है, दूसरी क्रिया है वृत्ति (विचार), तीसरी क्रिया है साक्षात्कार (चित्त) किसी को समझने के लिए, अर्थ स्वीकृति के लिए, अर्थ पूर्वक वस्तु स्वीकृति के लिए जो प्रायोजित है । जैसे पानी शब्द के साथ ही पानी रुपी वस्तु को अस्तित्व में स्वीकारने की क्रिया यह चित्त क्रिया है । इसी प्रकार बुद्धि में बोध क्रिया, बोध क्रिया निश्चयता, स्थिरता को स्वीकारने की अर्हता, इसी को दूसरी भाषा में सत्य धर्म, न्याय को दृढ़ता पूर्वक स्वीकारने की क्रिया है । पाँचवीं क्रिया अनुभव क्रिया । अनुभव क्रिया की

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