आदर्शवाद का मूल आधार स्थली, गम्यस्थली दोनों रहस्य है । रहस्य के आधार और गम्यस्थली होने के आधार पर ही मतभेदों का होना आवश्यक रहा । इसी के साथ-साथ अनेक विधि से प्रयोग, अभ्यास का भी प्रयास हुआ । जितने भी प्रकार से इन तीनों विधाओं में प्रयास हुए अभ्यास, साधन, योग, ध्यान से लेकर पूजा, पाठ, प्रार्थना तक । इन सभी कृत्यों के फलन के रुप में जो आश्वासन मिला, वह मोक्ष और स्वर्ग, मोक्ष भी एक रहस्य, स्वर्ग भी एक रहस्य रहा और यही गम्यस्थली कहलाता रहा ।
आधार भी रहस्य होना इस प्रकार से रहा है । एक रहस्य से ही, रहस्य में ही शून्य, ब्रह्म से ये सभी सृष्टि, स्थिति, लय हुई, अथवा भौतिक क्रियाकलाप से परे किसी वस्तु से सृष्टि, स्थिति लय हुई । इस प्रकार शुरुआत रहस्य से और अन्त भी रहस्य से हुआ । अन्त, शुभद रहस्य स्वर्ग और मोक्ष से । शुभद इसीलिए कि स्वर्ग और मोक्ष को आनन्द है, रहस्य इसीलिए कि रहस्य में इसका अन्त होने से । इन्हीं तीनों प्रकार की संयुक्त आशय रुपी आदर्शवाद के अनुसार दृश्य, दृष्टा, दर्शन के बारे में ब्रह्मवादियों के अनुसार ब्रह्म ही दृष्टा, ब्रह्म ही अपने संकल्प के अनुसार दृश्य और ब्रह्म ही दर्शन करने वाली दृष्टि है । वैसे ही अधिदैवी वाले भी कहते हैं, जो दस्तावेजों के अनुसार पढ़ने को मिलता है, उसके अनुसार शक्ति विद्या, शिव विद्या, और विष्णु विद्या तीन प्रतिपादित हैं । शक्ति में ही सम्पूर्ण दृश्य, सृष्टि स्थिति लय है । वैसे ही तीनों में ये देवाधीन है । सभी दृश्य इसीलिए है कि दृश्य रुप में देवताओं का संकल्प है, देवता ही दृष्टा हैं, दर्शन करने वाला भी देवता है । इसी प्रकार अधिभौतिक वाद के अनुसार भी भौतिकता से अधिक ताकतवर कोई रहस्यमयी दृष्टा, दृश्य, दर्शन होने की बात कही गयी है । इसी क्रम में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के बारे में भी बात बताई गई है । ब्रह्म ही अथवा देवता, स्वयं में ही ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय के रुप में, ध्यान, ध्याता, ध्येय ये सब है । कार्य, कारण, कर्ता के रुप में भी ईश्वर अथवा देवता को मानने के लिए तैयार है । ये पहले की आवाज इस रुप में ही रही है ।
भौतिक वादी विचार के अनुसार रचना भेद से चेतना भेद निष्पन्न होता है, इनका प्रमाण देखने को नहीं मिलता । भौतिक वस्तु ही चेतना का स्रोत माना गया । इस क्रम में पत्थर, मिट्टी को परीक्षण करने से कुछ दिखता नहीं है ।
सहअस्तित्व वादी नजरिये से मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रुप होने का अध्ययन सम्पन्न करते हुए, जीवन चैतन्य पद प्रतिष्ठा होने की स्थिति समझ में आता है । चैतन्य प्रकृति रुपी जीवन जागृतिक्रम से जागृति पूर्वक, मानव परम्परा में जागृति को प्रमाणित करना होता है ।