मानव परम्परा में शरीर और जीवन का सान्निध्य आवश्यक है, अथवा सहअस्तित्व आवश्यक है । जीवन में होने वाली दस क्रियाओं के आधार पर जैसा अनुभव, प्रमाण, अनुभव का बोध और संकल्प, संकल्प का साक्षात्कार एवं चित्रण, चित्रण का तुलन और विश्लेषण, विश्लेषण का आस्वादन और चयन, ये दस क्रियायें जीवन में सम्पादित होती हैं । यही दस क्रियायें जीवन जागृति के अनन्तर प्रमाणित होते हैं । शरीर को जीवन मानते तक, जीवन क्रियाओं में से साढ़े चार क्रियायें ही सम्पन्न हो पाते हैं । शेष साढ़े पाँच क्रियायें प्रमाणित नहीं हो पाते । इसी संकट वश मानव प्रताड़ित होता है । स्वयं में अन्तर्विरोध वश, जीवन शक्तियाँ प्रमाणित नहीं हो पाने के संकट वश प्रताड़ित है । इसी तरह शरीर को जीवन समझने का भ्रम समस्याओं का कारण बनना और ब्राह्य प्रताड़ना वश मानव व्याकुल एवं संकट ग्रस्त रहता है । इसका प्रभाव द्रोह, शोषण, युद्ध सदा-सदा से मानव कुल के सिर पर ही नाच रहा है । अथवा मानव इसे अपरिहार्य मान चुका है । इससे घटिया तस्वीर मानव कुल का क्या हो सकता है यह सोचने का बिन्दु है । जबकि मानव इसे ही शान मानता रहा है ।

सहअस्तित्व वादी विधि से जीवन और शरीर का अध्ययन और सहअस्तित्व का अध्ययन, सहअस्तित्व में जीवन अविभाज्य रहने का अध्ययन, सहअस्तित्व में संपूर्ण भौतिक, रासायनिक क्रियायें सम्पन्न होने का सम्पूर्ण अध्ययन करतलगत हो गया । रासायनिक, भौतिक वस्तुओं, सम्पूर्ण प्रकार की वनस्पति संसार, जीव संसार और मानव शरीर रचनायें सम्पन्न होने की कार्य कलाप का अध्ययन सुलभ हो जाता है । मानव शरीर में मेधस तंत्र सर्वोच्च समृद्ध रचना होने के आधार पर जीवन की कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता प्रकाशित होते हुए, सोच विचार, कार्यकलाप, फल परिणाम के आधार पर, और सोच विचार होते हुए अब कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की तृप्ति बिन्दु की ओर, शोध अनुसंधान करने के लिए प्रस्तुत हुए । क्योंकि द्रोह-विद्रोह, शोषण-युद्ध से हम छुटकारा पाना चाहते ही हैं । ये संभवतः सर्वाधिक भले आदमियों में स्वीकृत है ही । इसके लिए सहअस्तित्व वादी अध्ययन की आवश्यकता रही ।

सहअस्तित्व वादी सोच के अनुसार ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय को ठीक-ठीक अध्ययन किया जा सकता है । ज्ञाता के रुप में जीवन को, ज्ञान के रुप में सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान; जीवन ज्ञान; मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को पहचाना गया । जागृति पूर्वक मानवाकाँक्षा, जीवनकाँक्षा को सार्थक बनाना ज्ञेय का तात्पर्य है, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था पूर्वक मानव लक्ष्य, जीवन लक्ष्य को प्रमाणित करना है, यही ज्ञेय के सार्थक होने का प्रमाण है ।

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