मानव का साध्य वस्तु जागृति है । जिसका स्वत्व स्वतंत्रता एवं अधिकार का स्वरूप ज्ञान, विज्ञान, विवेक जिसका प्रमाण कार्य व्यवहार पूर्वक अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप है जो एक दूसरे से कड़ी के रूप में जुड़ा हुआ है । इसमें किसी कड़ी को विभाजित नहीं कर सकते । परम्परा के रूप में जो साध्य वस्तु है, मानवाकाँक्षा, जीवनाकाँक्षा उसे सहअस्तित्व वादी ज्ञान, विवेक, विज्ञान के बिना प्रमाणित करना सम्भव नहीं हो सकता । सहअस्तित्व वादी विधि से ही प्रमाणित हो सकता है । सहअस्तित्व कोई रहस्य या संघर्ष नहीं है । सहज रूप में, सर्वमानव को समझ में आने वाला और सर्वमानव से आशित वस्तु है । क्योंकि हर मानव किसी की परस्परता में ही जीना और सुख पाना चाहता है । इस विधि से सहअस्तित्व की महिमा समझ में आता है ।
साथ में जीने के क्रम में, सर्वप्रथम मानव ही सामने दिखाई पड़ता है । ऐसे मानव किसी न किसी संबंध में ही स्वीकृत रहता है । सर्वप्रथम मानव, माँ के रूप में और तुरंत बाद पिता के रूप में, इसके अनन्तर भाई-बहन, मित्र, गुरु, आचार्य, बुजुर्ग उन्हीं के सदृश्य और अड़ोस-पड़ोस में और भी समान संबंध परंपरा में है हीं । जीने के क्रम में, संबंध के अलावा दूसरा कोई चीज स्पष्ट नहें हो पाता है । संबंधों के आधार पर ही परस्परता, प्रयोजनों के अर्थ में पहचान, निर्वाह होना पाया जाता है । इस विधि से पहचानने के बिना निर्वाह, निर्वाह के बिना पहचानना संभव ही नहीं है । इसमें यह पता लगता है कि प्रयोजन हमारी वांछित उपलब्धि है । प्रयोजनों के लिए संबंध और निर्वाह करना एक अवश्यंभावी स्थिति है, इसी को हम दायित्व, कर्त्तव्य नाम दिया। संबंधों के साथ दायित्व और कर्त्तव्य अपने आप से स्वयं स्फूर्त होना सहज है । कर्त्तव्य का तात्पर्य क्या, कैसा करना, इसका सुनिश्चियन होना कर्त्तव्य है । क्या पाना है, कैसे पाना है, इसका सुनिश्चियन और उसमें प्रवृत्ति होना दायित्व कहलाता है । हर संबंधों में पाने का तथ्य सुनिश्चित होना और पाने के लिए कैसा, क्या करना है, यह सुनिश्चित करना, ये एक दूसरे से जुड़ी हुई कड़ी है । ये स्वयं स्फूर्त विधि से, सर्वाधिक संबंधों में निर्वाह करना बनता है । जागृति के अनन्तर ही ऐसा चरितार्थ होना स्पष्ट होता है । भ्रमित अवस्था में संबंधों का प्रयोजन, लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता है । भ्रमित परम्परा में सर्वाधिक रूप में संवेदनशील प्रवृत्तियों के आधार पर, सुविधा संग्रह के आधार पर और संघर्ष के आधार पर संबंधों को पहचानना होता है । सुदूर विगत से इन्हीं नजरियों को झेला हुआ मानव परम्परा मनः स्वस्थता के पक्ष में वीरान निकल गया । जबकि सहअस्तित्व वादी विधि से मनःस्वस्थता की संभावना, सर्वमानव के लिए समीचीन, सुलभ होना पाया जाता है । इसी तारतम्य में हम सभी संबंधों को सार्थकता के अर्थ