में, प्रयोजनों के अर्थ में और संज्ञानीयता पूर्ण प्रयोजन के अर्थ में पहचान पाते हैं । इसका स्पष्ट रूप सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज के रूप में, इसका स्पष्ट रूप मानवाकाँक्षा; जीवनाकाँक्षा प्रमाणों के अर्थ में स्वीकार सहित और मूल्यांकन सहित कार्य व्यवहार और व्यवस्था और आचरणों को परिवर्तन कर लेना ही सहअस्तित्व वादी ज्ञान, विज्ञान और विवेक का फलन होना पाया जाता है ।
मानवाकांक्षा - समाधान, समृद्धि, अभय सहअस्तित्व सहज प्रमाण ।
जीवनाकांक्षा - सुख, शांति, संतोष आनंद के रूप में गण्य है ।
18. दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता
जागृत मानव परम्परा में मौलिकअधिकार सम्पन्न दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता के रुप में प्रमाणित है । सर्वाधिक देशों में ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म, देवी, देवताओं को स्वीकारने के लिए मानसिकता को अध्यात्मवादी तैयार किये हैं । इसके लिए सद्ग्रन्थ भी तैयार हुए और सारे धर्मों के मूल में देववाणी, ईश्वरवाणी अथवा आकाशवाणी के रूप में सद्ग्रन्थों में लिखी हुई सद्वाक्यों को माना गया । इसी को सद्ग्रन्थ माना गया । ऐसी मान्यता के आधार पर ग्रन्थ, ग्रन्थ के आधार पर उपदेश विधि प्रचलित हुई । ऐसे सद्ग्रन्थ तब तैयार हुए जब मानव एक देश के मानव सभी देश के साथ संबंध करने में समर्थ नहीं रहे । जब मानव ऐसा सामर्थ्य सम्पन्न हो गए, एक दूसरे समुदाय एक दूसरे के धर्म ग्रन्थों को अध्ययन करने को तैयार हुए । इसमें पता चला कि जिन बातों को हम अपने धर्म ग्रन्थ के अनुसार स्वीकारते हैं, दूसरे धर्म ग्रन्थ उसको स्वीकारते नहीं है । फिर यह ईश्वरवाणी कहाँ है । इस प्रकार से धार्मिक मतभेद उलझता ही गया । सहज रूप में सबको यह स्वीकार होता है कि धर्म ग्रन्थ होना चाहिए साथ में यह भी मानसिकता में स्वयंस्फूर्त कल्पना आती है कि धर्म में कोई विवाद होना नहीं चाहिए, यदि विवाद होता है, तो धर्म ही क्या हुआ! इस प्रकार की तर्क बुद्धि से सोचने वाले मानव भी इस धरती पर हैं ही । इसके बावजूद, निर्विवाद धर्म ग्रन्थ क्या होना चाहिए, यह हमें आदर्शवादी विधि से उपलब्ध नहीं हुआ । भौतिकवादियों के लिए धर्म ग्रन्थ की जरूरत ही नहीं है । इस प्रकार हम साधारण मानव प्रताड़ित होते ही रहे, वह अंतर्विरोध से भी, बाह्य संसार के विरोधों में द्रोह-विद्रोह से, शोषण और युद्ध भय से पीड़ित होते ही रहे । इन सब के मूल में ईश्वर कृपा, देव कृपा को ही मानते आए, किसी भी क्षण हमें