किसी भी मुद्दे पर राहत मिली, प्रसन्नता मिली, उसे ईश्वर, देवता या गुरुकृपा माना । इस प्रकार हम सामान्य मानव हर्ष-विषाद को झेलते रहे । स्वयं में विश्वास न तो सामान्य कहलाने वाले, न ही विशेष कहलाने वाले के पास रहा । जबकि हर मानव में विश्वास के आधार पर राहत पाने की बात पहचानने में आती रही है । अभी भी वैसा ही है । जिन परस्परताओं में हम विश्वास कर पाते हैं, उसी में हम राहत पाते हैं । यह भले ही क्षण, दिन, वर्ष क्यों न हो । इसे ही हम ईश्वर, देवता, गुरुकृपा मानकर स्वयं को भुलावा देने का कार्य सदा-सदा करते रहते हैं । जबकि मानव अपने कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता वश ही इस धरती पर अपने मनाकार को साकार करने में सफल हुआ है । यह स्वयं मानव का उपज नहीं है, तो किसका उपज है । चाहे इसे हम समझें, न समझें, सोचा जाना एक आवश्यक मुद्दा है । इसी के साथ मनःस्वस्थता को प्रमाणित करना ही मानव परम्परा में समाधान है ।
ध्यान देने का मुद्दा यहाँ यही है कि जो कुछ भी हमारे सम्मुख प्रतिबिम्बित है, उसके मूल में कोई कर्त्ता पद है कि नहीं, करने वाला है कि नहीं । अगर इसके मूल में कोई कर्त्ता नहीं है, तो विश्वकर्त्ता पद का आरोप गलत हो गया । अगर कर्त्ता नहीं है, तो भोक्ता पद कैसा होगा । यदि ऐसा नहीं है, तब दृष्टा पद का क्या हुआ । यह सब एक के बाद एक प्रश्न उदय होता रहा है । इन प्रश्नों का उत्तर आदर्शवादी विधि से नहीं मिल पाता है ।
सहअस्तित्व वादी विधि से जब सोचने-विचारने लगे, निर्णयों को पहचानने लगे, तब पता लगा कि जो कुछ भी सहअस्तित्व में चारों अवस्था के रूप में कार्य कर रहा है, वह सब स्वयं स्फूर्त कर्त्ता पद में ही है । इस कारण क्रिया स्वयं में श्रम, गति, परिणाम के रूप में विकासक्रम के अर्थ में कार्य करता हुआ स्पष्ट है । इसी क्रम में, परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, गति का गन्तव्य के रूप में जागृति को पहचाना गया । परिणाम का अमरत्व पद विकास के अर्थ में, श्रम का विश्राम, गति का गन्तव्य, जागृति और जागृतिपूर्णता के रूप में पहचानना सम्भव हो पाया है । इस प्रकार मानव स्वयं जागृति पद का ज्ञाता उद्गाता अथवा प्रमाणित करने योग्य इकाई है, यह समझ में आता है । उक्त सभी अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि सहअस्तित्व में अर्थात् व्यापक वस्तु में संपूर्ण एक-एक वस्तुयें सम्पृक्त रहने से ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता वश, स्वयं स्फूर्त विधि से क्रियाशील होना, इसके लिए कोई कराने वाले का जरूरत न होना पाया गया । छोटे से छोटे, बड़े से बड़े सभी रचनायें अपने आप में क्रियाशील रहना देखने को मिला । ऐसी क्रियाशीलता ही श्रम, गति, परिणाम के रूप में, यही विकासक्रम में परिणाम का अमरत्व विकास