पद से ख्यात होना समझ में आ गया । इसकी गवाही गठन पूर्ण परमाणु पद ही है, चैतन्य पद ही है । विकास क्रम में कर्त्ता पद स्पष्ट था । चैतन्य पद में जागृति क्रम में जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में जीव संसार और भ्रमित मानव परम्परा में जीने की आशा, विचार, इच्छा स्पष्ट हो गई । जीने की आशा को स्पष्ट करते हुए चाहना, न चाहना प्रमाणित हो गयी । इसी के साथ चाहत के रूप में अर्थात् जीने की चाहत के साथ सुखी होने का चाहत मानव से प्रकाशित हुई । इसके लिये मनाकार को साकार करना सम्भव हो गया । इससे यह सुस्पष्ट हो जाता है कि सुखी होने की मानसिकता, खुद की इच्छा के रूप में मानव में प्रगट हुई । इसके आधार पर पहले से कर्त्ता पद रहा, भोक्ता पद की अपेक्षा हुई, सुख भोगने की अपेक्षा हुई । इसके लिए दृष्टा पद का उदय होना अवश्यंभावी हो गया । ऐसा दृष्टा पद प्रतिष्ठा का प्रमाण ही है, समझदारी । समझदारी ही दृष्टा पद, ज्ञान तत्व के साथ ज्ञाता के रूप में प्रतिष्ठा सम्पन्न होना पाया गया । इस विधि से दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता पद को मानव ही प्रमाणित करता है । मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में ही वैभवित रहना पाया जाता है । चैतन्य इकाई की महिमा दृष्टा, ज्ञाता पद सम्पन्नता को प्राप्त कर लेना ही है । फलस्वरूप, प्रमाणित करने के अर्थ में मानव परम्परा में प्रमाणित करता हुआ कर्त्ता, भोक्ता पद में मानव वैभवित होना पाया जाता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया भौतिक, रासायनिक संसार स्वयं स्फूर्त कर्त्ता पद में, चैतन्य पद जीवन अपने जागृति सम्पन्नता सहित दृष्टा, ज्ञाता के रूप में होना पाया गया । दृष्टा, ज्ञाता के रूप में कर्त्ता पद का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता विधि से जीवनाकाँक्षा, मानवाकाँक्षा को प्रमाणित करने का सौभाग्य उदय होता है । इसके विपरीत भ्रमित रहने से, समस्याओं से, क्लेशित होना होता है । जहाँ तक रासायनिक, भौतिक संसार है, यह विकासक्रम में यथास्थिति में परिणामशीलता के आधार पर स्पष्ट हुई है । इस प्रकार कर्ता पद के साथ भोक्ता पद बना ही है । क्योंकि परिणाम का स्वरूप अनेक यथास्थिति में दिखाई पड़ता है । देखने का मतलब समझना ही है । समझना संपूर्ण वैभव, महिमा जीवन में होना पाया जाता है । इस प्रकार, चैतन्य संसार में दृष्टा पद प्रतिष्ठा जुड़ गयी । यह जागृति के फलस्वरूप स्पष्ट हुई । यही मुख्य मुद्दा है । ऐसे सम्पूर्ण रासायनिक, भौतिक क्रिया में, जीव संसार में, भ्रमित मानव में कर्ता, भोक्ता होने का गवाही सदा-सदा से बना ही है । इसीलिए, मानव कर्ता दृष्टा पद पूर्वक ही सार्थक सुफल होने की व्यवस्था है । भ्रमित अवस्था में नहीं । अस्तु, दृष्टा पद जागृत परम्परा का ही महिमा होना स्वभाविक है । इसलिए मानव परम्परा को बनाये रखना हम सब मानव के लिये सर्व शुभकारी सूत्र है, व्याख्या है ।
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