मानव के लिये जितना उन्नतावकाश है उतना ही पतन के लिये भी अवकाश है । पतनोन्मुखी क्रियाकलाप ही अपराध या गलतियाँ हैं । इसी का प्रत्यक्ष रूप ही दुःख, अशान्ति, असंतोष एवं असहअस्तित्व भ्रम है ।
पतनोन्मुखी जीवन की श्रृंखला में अपराध के तीन कारण दृष्टव्य है :- (1) अभाव (2) अत्याशा एवं (3) अज्ञान । इसके साथ ही राग, द्वेष, असत्य, अभिमान, भय, आलस्य, रोग और असफलता भी है । इनका निराकरण क्रम से अभाव को उत्पादन एवं अभ्यास से, अत्याशा को विवेक से, अज्ञान को ज्ञान से, राग को विराग से, द्वेष को स्नेह से, असत्य को सत्य से, अभिमान को सरलता से, भय को अभय से, आलस्य को चेष्टा से, असफलता को पराक्रम व पुनः प्रयोग से, रोग को औषधि-आहार एवं विहार से, समाधान एवं परिहार करने की व्यवस्था है जो मानव के लिये एक अवसर है । यही आवश्यकता है ।
वैज्ञानिक क्षमता का अपव्यय न होना ही अर्थ का अनर्थ न होना है ।
विवेक का उपयोग हो जाना ही समाज की अखण्डता है जो स्वर्गीयता है ।
विज्ञान (निपुणता, कुशलता) मानव से कम विकसित का परिमाणीकरण पूर्वक नियंत्रण करने के लिये योग्यता है जो पूर्णतया उत्पादन क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध हुआ है और आंशिक रूप से व्यवहार में । जबकि विवेक स्वयं के (मानव के) विश्लेषण पूर्वक सामाजिक मूल्यों को स्पष्ट करता है ।
सहअस्तित्व में ज्ञान ही दृश्य, मानव दृष्टा, मानवत्व पूर्वक दृष्टि होना स्पष्ट है । इसलिए सहअस्तित्व में ज्ञान, सहअस्तित्व में व्यवहार व समाधान प्रमाणित होता है फलस्वरूप व्यवस्था प्रमाणित होती है ।
व्यवहारिक मूल्य ही स्थिर मूल्य है ।
मानव संबंध एवं सम्पर्क पर्यन्त व्यवहार के लिए अवसर सम्पन्न है ।
मूल्य विहीन सम्पर्क एवं संबंध नहीं है ।