मर्यादा विहीन इकाई नहीं है । जैसे जीवों में स्वभाव मर्यादा, वनस्पतियों में गुण मर्यादा एवं पदार्थों में रूप मर्यादा-भंग नहीं होती है । यही उनकी गरिमा है । इसी प्रकार मानव में समाधान सुख ही धर्म है, धर्म ही मर्यादा है । यही उनकी गरिमा एवं विश्वास है । मर्यादा का प्रत्यक्ष रूप ही विश्वास है ।
“विश्वासविहीन संबंध एवं सम्पर्क में सुख नहीं है ।” संबंध एवं सम्पर्क विहीन मानव नहीं है । यही बाध्यता स्वधर्म के लिये है । इसके पालन में जो अक्षमता, अयोग्यता एवं अपात्रता है - वही दुख, क्लेश, समस्या और अजागृति है ।
स्वधर्म में सम्पन्नता एवं पालन करने योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता से परिपूर्ण होते तक ज्ञानार्जन करने के अर्थ में अध्ययन रूपी उपासना का अभाव नहीं है ।
मानव के स्वधर्म में ही मत, सम्प्रदाय, वर्ग तिरोहित हो जाते हैं । यही समर्थ उपासना की प्रत्यक्ष गरिमा है । “यही मांगलिक है ।” साध्य, साधक, साधन, इन तीनों का उपासना में समाहित रहना अनिवार्य है । इनकी एक सूत्रता ही उपासना की सफलता है अन्यथा असफलता है । प्रत्येक स्थिति में प्राप्त शक्ति व साधनों का सदुपयोग करना ही उसकी अग्रिम जागृति है । यही उपासना है ।
ऐसी कोई शक्ति व साधन नहीं है जिसका नियोजन या उपयोग न हो, क्योंकि शक्ति या साधन का संचय व्यवहारिक नहीं है ।
आत्मरति में विवेक; विवेकपूर्ण बुद्धि-मूलक विज्ञान; विज्ञानपूर्ण कला, रचना, विवेचना और विचार, विवेचनापूर्वक आस्वादन एवं स्वागत, भावपूर्ण मन निरंतर संतुलित एवं समाधानित हैं । इसी के फलस्वरूप आत्मा में परमानन्द आप्लावन, बुद्धि में आनन्द-आप्लावन, चित्त में संतोष-आप्लावन, वृत्ति में शान्ति-आप्लावन, मन में सुख-आप्लावन प्रसिद्ध है ।
इन्द्रिय कार्यकलाप तथा इन्द्रियों का कार्यक्षेत्र ही अपरोक्ष ज्ञान की सीमा है । इस व्यापार में चतुर्विषय सीमान्तवर्ती प्राप्तियाँ हैं । इसके अतिरिक्त और उपलब्धियाँ इसमें नहीं है ।
विषयों की सीमा में मानव सीमित नहीं है क्योंकि मानव में चार आयाम प्रसिद्ध हैं ।