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मानव ही उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति सम्पन्न होने के लिये बाध्य है । यही आवश्यकता, अवसर, संभावना एवं व्यवस्था है ।

संयमतापूर्वक ही मानव के द्वारा प्रत्येक परिप्रेक्ष्य में किये गये क्रियाकलाप में से गरिमापूर्ण वैभव प्रकट होता है । जैसे-

सत्यबोध सहित सत्य बोलने का अभ्यास करने से भय व अविश्वास की निवृत्ति, हर्ष तथा उत्साह का उदय होता है ।

अहिंसा पर अधिकार पा लेने से विरोध से भय मुक्ति और स्नेह व उदारता का उदय होता है । कृत, कारित, अनुमोदित, कायिक, वाचिक, मानसिक भेदों से हिंसा में भागीदारी न करना = अहिंसा

अपरिग्रह में निष्ठा से दयनीयता तथा हीनता का नाश एवं धैर्य व धृति उदारता का उदय होता है ।

अस्तेय प्रतिष्ठा से धूर्तता व विकलता का नाश तथा तुष्टि व संतोष का उदय होता है । अस्तेय का तात्पर्य चोरी न करना है ।

विश्व के प्रति मूल्य (भाव) की प्रतिष्ठा से इष्ट और साधक के मध्य विषमता का अभाव होता है । साथ ही तत देवता का स्वभाव प्रवेश होता है ।

शब्द के अर्थ अर्थात् मन्त्रार्थ का तदरूपतापूर्वक स्मरण करने के अभ्यास से उसका अर्थ एवं स्वभाव गम्य होता है । सभी सार्थक शब्द मन्त्र है ।

अधिक जागृत में समर्पण से अभिमान व अहंकार का उन्मूलन तथा विद्या व सरलता का उदय होता है ।

शरीर संवेदना संयत रहने से मन की पवित्रता, मन की पवित्रता से मनोबल का लाभ होता है ।

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