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जो पूर्णता के लिए क्रियाशील है, पूर्ण होने के अनन्तर उसकी निरन्तरता होती है जैसे क्रियापूर्णता व आचरण पूर्णता । इसलिये अपूर्णता के मापदंड से पूर्णता का परिमाणीकरण अथवा अजागृत से जागृत का परिमाणीकरण संभव नहीं है, क्योंकि गुरूमूल्य में लघुमूल्य समाता है न कि लघुमूल्य में गुरूमूल्य । यह मानव में प्रत्यक्ष है । जैसे, प्रत्येक मानव अपने से कम विकसित का परिमाणीकरण करने में सफल हुआ है जो प्रत्यक्ष है । इसी के आनुषंगिक मानव कम विकसित प्रकृति के साथ उत्पादन करता हुआ प्रत्यक्ष है और अधिक का ज्ञान भी उसे हुआ है । इसलिये समान के साथ व्यवहार करने के लिये बाध्य हुआ है । यही सामाजिकता की बाध्यता है । यही मानव जीवन सहज गौरव और गरिमा है । यही गरिमा समान के साथ व्यवहार, अधिक जागृति के लिये अभ्यास करने के लिये प्रेरणा है । यही वास्तविक उपासना है ।

विवेक अर्थात् मानव लक्ष्य और जीवन मूल्य अर्थात् समाधान समृद्धि ही उपासना का प्रत्यक्ष फल है जिसमें सामाजिकता स्वाभाविक रूप से समाहित रहती है ।

अनुभव बोध का परावर्तन ही असंग्रह (समृद्धि), उदारता एवं दया है । उदारता एवं दया सहज मौलिक मूल्यों का अनुरंजन ही सामाजिकता का प्राण तत्व है । यही सामाजिक संगीत है । इसी के लिये मानव तृषित है । विवेक ही बौद्धिक समाधान एवं सामाजिक मूल्यों को निर्वाह पूर्वक प्रकट करता है ।

विवेक व विज्ञान ही परोक्ष ज्ञान (सद्व्यवहारिक ज्ञान) का प्रधान लक्षण है । अनुभव ही परोक्ष ज्ञान की अन्तिम स्थिति है । इसके पूर्व अनुमान अधिकार ही प्रसिद्ध है । वस्तुस्थिति, वस्तुगत, स्थिति सत्य में ही अनुभव है ।

परोक्ष ज्ञान के बिना नित्यानित्य, युक्तायुक्त, न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य,इष्टानिष्ट, दृष्टादृष्ट तथा परोक्ष ज्ञानाधिकार सिद्ध नहीं होता है ।

नित्यानित्य ज्ञानाधिकार के बिना मानव में स्वधर्म के प्रति निष्ठा नहीं पाई जाती है । मानव धर्म ही सुख, सुख ही न्यायपूर्ण आचरण, न्यायपूर्ण आचरण ही मानवीयतापूर्ण एवं “नियम-त्रय” का पालन है । यही मानव का स्वधर्म है । मानव सुख धर्मी है ।

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